नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
होरी— अरे बैठ तो जरा, जो काम निपट जाय वह अच्छा। दुलारी ने बड़ी मुश्किल से...
धनिया— ओहो उसने जरा-सी हामी भर दी। तो तुम चारों ओर खुशखबरी लेकर दौड़े।
होरी— हामी नहीं भर दी, पक्का वादा किया। चल-चल रोटी दे। फिर सब बताऊँगा।
[दोनों अन्दर आते हैं। मंच पर प्रकाश सीधा पड़ता है। गाँव वाले आते-जाते हैं। सोना अन्दर से आकर मार्ग में दूर तक देखती है, फुस-फुसाती है।]
सोना— (स्वगत) अभी तक नहीं आयी? कहीं बड़ी दूर है। न आने दिया होगा उन लोगों ने। अहा...वह आ रही है; लेकिन बहुत धीरे-धीरे आती है। अभागे नहीं माने साइत, नहीं सिलिया दौड़ती जाती। तो सोना से हो चुका ब्याह मुँह धो रखें?
[सिलिया आती है। सोना लपक कर उसे पकड़ती है। पूछती है। दोनों मकान के पीछे आती हैं। घुल-घुल कर बातें करती हैं। अन्धकार गहरा होने लगता है। दोनों अन्दर जाती हैं। पूर्ण अन्धकार हो जाता है। बाद में प्रकाश होता है। गाँव में आवाजाही होने लगती है। होरी बाहर से दौड़ा हुआ आता है। हर्ष से उछल पड़ता है। अन्दर जाता है। बाहर की दीवार हट जाती है। अन्दर धनिया खाट पर लेटी है।]
होरी— धनिया, धनिया।
धनिया— (उठती हुई) क्या है?
होरी— है क्या। सोना के ससुर ने नाई के हाथ पत्र भेजा है। सुन— ‘स्वस्ती श्री सर्वोपमा जोग श्री होरी महतो को गौरीराम का राम-राम बाँचना। आगे जो हम लोगों में दहेज की बातचीत हुई थी उस पर हमने शांत मन से विचार किया, तो समझ में आया कि लेन-देन से वर और कन्या ही के घरवाले जेरबार होते हैं। जब हमारा-तुम्हारा संबंध हो गया, तो हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि किसी को न अखरे। तुम दान-दहेज की कोई फिकर मत करना, हम तुमको सौगन्ध देते हैं।
जो कुछ मोटा-महीन जुरे, बरातियों को खिला देना। हम वह भी न माँगेंगे। रसद का इन्तजाम हमने कर लिया है। हाँ, तुम खुशीखुर्रमी से हमारी जो खातिर करोगे, वह सिर झुका कर स्वीकार करेंगे।’
(धनिया जैसे ध्यानमग्न हो गयी हो) सुना धनिया?
धनिया— ( चौंक कर) सुना।
होरी— तुझे खुशी नहीं हुई।
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