नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
धनिया— यह गौरी महतो की भलमनसी है। लेकिन हमें भी तो अपने मरजाद का विवाह करना है। संसार क्या कहेगा। रुपया हाथ का मैल है। उसके लिए कुल-मरजाद नहीं छोड़ा जाता।
होरी— पर मैं कुल-मरजाद कहाँ छोड़ रहा हूँ। उन्होंने खुद लिखा है।
धनिया— लिखा होगा पर हमसे जो कुछ हो सकेगा देंगे, और गौरी महतो को लेना पड़ेगा। तुम यही जवाब लिख दो। माँ-बाप की कमाई में क्या लड़की का कोई हक नहीं।
(होरी हतबुद्धि-सा उसे देखता है)
होरी— तेरा मिजाज आज तक मेरी समझ में न आया। तू आगे भी चलती है, पीछे भी चलती है। पहले तो इस बात पर लड़ रही थी कि किसी से एक पैसा करज मत लो, कुछ देने-दिलाने का काम नहीं है और जब भगवान ने गौरी के भीतर पैठ कर यह पत्र लिखवाया तो तूने कुल-मरजाद का राग छेड़ दिया।
धनिया— मुँह देखकर बीड़ा दिया जाता है, जानते हो कि नहीं। तब गौरी अपनी सान दिखाते थे, अब वह भलमनसी दिखा रहे हैं। ईंट का जवाब चाहे पत्थर हो लेकिन सलाम का जवाब तो गाली नहीं है।
होरी— तो दिखा अपनी भलमनसी ! देखें कहाँ से रुपये लाती है?
धनिया— रुपये लाना मेरा काम नहीं है, तुम्हारा काम है।
होरी— मैं तो दुलारी से ही लूँगा।
धनिया— ले लो उसी से। सूद तो सभी लेंगे। जब डूबना ही है तो क्या तालाब क्या गंगा।
[होरी बाहर जाने को बढ़ता है। चिन्तित है। हाथ हिलाता हुआ बढ़ता है, बोलता है]
होरी— (स्वगत) कितने मजे से गला छूटा था, लेकिन धनिया जब जान छोड़े तब तो ! जब देखो उल्टी ही चलती है। इसे जैसे कोई भूत सवार हो जाता है। घर की दशा देख कर आँखें नहीं खुलतीं।
[सहसा शोभा का तेजी से प्रवेश]
शोभा— होरी दादा, होरी दादा। तुम यहाँ क्या कर रहे हो? कुर्क अमीन तुम्हारी ऊख नीलाम कर रहा है।
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