नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 29 पाठक हैं |
‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
होरी— बेटा ही लायक होता तो फिर काहे का रोना था। चिट्ठी-पत्तर तक भेजता नहीं, रुपये क्या भेजना। यह दूसरा साल है एक चिट्ठी नहीं।
(सोना का प्रवेश। सिर पर गट्ठा है। गट्ठा वहीं पटक कर अन्दर जाती है। नोहरी उसे जांचती है।)
नोहरी— लड़की तो खूब सयानी हो गयी है।
धनिया— लड़की की बाढ़ रेड़ की बाढ़ है। है कै दिन की। रुपये का बन्दोबस्त हो गया तो इसी महीने में ब्याह कर देंगे।
नोहरी— (क्षण भर सोच कर) थोड़े बहुत से काम चलता हो तो मुझ से ले लो, जब हाथ आ जाय तो दे देना। (अचरज से दोनों नोहरी को देखते हैं। नोहरी फिर कहती है) तुम्हारी और हमारी इज्जत एक ही है। तुम्हारी हँसी हो तो मेरी हँसी न होगी? कैसे भी हुआ हो, पर अब तुम हमारे समधी हो।
होरी— तुम्हारे रुपये तो घर में ही हैं। जब काम पड़ेगा ले लेंगे। आदमी अपनों का ही भरोसा तो करता है। मगर ऊपर से इन्तजाम हो जाय, तो घर के रुपये क्यों छुए।
धनिया— हाँ और क्या?
नोहरी— जब घर में रुपये हैं तो बाहर वालों के सामने हाथ क्यों फैलाओ। सूद भी देना पड़ेगा, उस पर इस्टाम लिखो, गवाही कराओ, दस्तूरी दो, खुशामद करो, हाँ, मेरे रुपये में छूत लगी हो तो दूसरी बात है।
होरी— नहीं-नहीं, नोहरी, जब घर में काम चल जायगा तो बाहर क्यों हाथ फैलायेंगे, लेकिन आपसवाली बात है। खेती-बारी का भरोसा नहीं। तुम्हें कोई काम पड़ा और हम रुपये न जुटा सके तो तुम्हें भी बुरा लगेगा और हमारी जान संकट में पड़ेगी इससे कहता था। नहीं लड़की तो तुम्हारी है।
नोहरी मुझे अभी रुपये की ऐसा जल्दी नहीं है।
होरी— तो तुम्हीं से लेंगे। कन्या-दान का फल भी क्यों बाहर जाय।
नोहरी— कितने रुपये चाहिए?
होरी— तुम कितने दे सकोगी
नोहरी— सौ से काम चल जाएगा
होरी— सौ में भी चल जायगा। पाँच सौ में भी चल जायगा जैसा हौसला हो।
|