नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
होरी— और कोई रास्ता नहीं !...बोल...
धनिया— (एक क्षण रुक कर) बोलूँ क्या? गौरी बरात लेकर आयेंगे। एक जून खिला देना ! सबेरे बेटी बिदा कर देना। दुनिया हँसेगी, हँस ले। भगवान् की यही इच्छा है कि हमारी नाक कटे, मुँह में कालिख लगे, तो हम क्या करेंगे।
(तभी नोहरी चुंदरी पहने सामने से जाती है)
होरी— अरे भोला की नई बहू जा रही है।
धनिया— (पुकार कर) आज किधर चली समधिन? आओ बैठो ! (नोहरी पास आती है) आज किधर भूल पड़ीं?
नोहरी— ऐसे ही तुम लोगों से मिलने चली आयी। बिटिया का ब्याह कब तक है?
धनिया— (सन्देह से) भगवान् के अधीन है, जब हो जाय।
नोहरी— मैंने तो सुना इसी सहालग में होगा। तिथि ठीक हो गयी?
धनिया— हाँ, तिथि तो ठीक हो गयी।
नोहर— मुझे भी नेवता देना।
धनिया— तुम्हारी तो लड़की है, नेवता कैसा?
नोहरी— दहेज का सामान तो मँगवा लिया होगा। चलो मैं भी देखूँ।
होरी— अभी कोई सामान नहीं मँगाया और सामान क्या करना है, कुस-कन्या तो देना है।
नोहरी— (अविश्वास से) कुस-कन्या क्यों दोगे महतो, पहली बेटी है, दिलखोल कर करो।
होरी— (हँसता है) रुपये-पैसे की तंगी है, क्या दिल खोलकर करूं। तुमसे कौन परदा है।
नोहरी— बेटा कमाता है, तुम कमाते हो, फिर भी रुपये-पैसे की तंगी। किसे विश्वास आयेगा।
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