नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
चौथा दृश्य
[वही होरी का घर, मार्ग कुछ और घर। होरी के घर के पास एक झोपड़ी है जिसमें सिलिया रहती है। होरी घर के दरवाजे पर बैठा धनिया से बातें करता है। बहुत हार गया है।]
होरी— सोना अपने घर की हुई यह अच्छा हुआ राज करती है। पर सिलिया का बेटा मर गया। कैसा प्यारा था।
धनिया— रूपा का तो वह खिलौना था। उबटन मलती, काजल लगाती, नहलाती, बाल सँवारती, अपने हाथों कौर बना कर खिलाती, कभी-कभी गोद में लिए रात को सो जाती। मैं डाँटती, तू सब कुछ छुआछूत किये देती है मगर वह न सुनती।
होरी— और मातादीन भी तो किसी-न-किसी बहाने यहाँ आता और कनखियों से बच्चे को देखता।
धनिया— मैं कहती, लजाते क्यों हो गोद में ले लो प्यार करो कैसा काठ का कलेजा है तुम्हारा। बिलकुल तुमको पड़ा है। तब वह एक-दो रुपये सिलिया के लिये फेंक कर चला जाता।
होरी— लेकिन उस दिन तो वह खुल पड़ा। लाश को दोनों हथेलियों पर रख लिया और अकेला नदी के किनारे तक ले गया (साँस लेकर) यही मरद का धरम है। जिसकी बाँह पकड़ी उसे क्या छोड़ना।
धनिया— ज्यादा मत बखान करो, जी जलता है। वह मरद है। मैं ऐसा मरद को नामरद कहती हूँ। जब बाँह पकड़ी थी तब क्या दूध पीता था? कि सिलिया बाह्मनी हो गयी थी?
होरी— वह पुरानी बात है। अब वह बाँह नहीं छोड़ेगा। अच्छा मैं चलूँ, जरा किसी को टटोलूँ। पण्डित नोखेराम ने बेदखली का दावा कर रखा है। जमीन हाथ से निकल गई तो बाकी दिन मजूरी करने में कटेंगे।
[जाता है। धनिया एक क्षण देखती है फिर अन्दर जाती है। तभी सिलिया आती है। टोकरी उतार कर द्वार पर रखती है और बैठकर इधर-उधर देखती है फिर चुपचाप रो पड़ती है। सहसा चौंकती है। मातादीन आकर सामने खड़ा हो गया।]
मातादीन— कब तक रोये जायगी सिलिया। रोने से वह फिर तो न आ जायगा !
सिलिया— (चौंकती है) कौन ! (देख कर) तुम ! तुम आज इधर कैसे आ गये।
मातादीन— इधर से जा रहा था। तुझे बैठे देखा, चला आया।
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