नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
मातादीन— मैंने अपना घर बना लिया है।
सिलिया— सच?
मातादीन— हाँ, सच।
सिलिया— कहाँ, मैंने तो नहीं देखा।
मातादीन— यही तो है।
सिलिया— (वेदना से) यह तो सिलिया चमारिन का घर है !
मातादीन— (उसका द्वार खोल कर) यह मेरी देवी का मन्दिर है।
सिलिया— (चमक कर) मन्दिर है तो एक लोटा पानी उँड़ेल कर चले जाओगे !
मातादीन— नहीं सिलिया, जब तक प्राण हैं तेरी सरन में रहूँगा। तेरी ही पूजा करूँगा।
सिलिया— झूठ कहते हो।
मातादीन— नहीं, तेरे चरन छू कर कहता हूँ।
[सिलिया एकदम मातादीन के मुँह की ओर देखती है। एकाएक बोल नहीं पाती। फिर फुसफुसाती है]
सिलिया— गाँव वाले क्या कहेंगे?
मातादीन— जो भले आदमी हैं वह कहेंगे यही इनका धरम था। जो बुरे हैं उनकी मैं परवा नहीं करता।
सिलिया— और तुम्हारा खाना कौन पकायेगा?
मातादीन— मेरी रानी सिलिया।
सिलिया— तो बाह्मन कैसे रहोगे?
मातादीन— मैं बाह्मन नहीं चमार ही रहना चाहता हूँ। जो अपना धरम पाले बाह्मन है। जो धरम से मुँह मोड़े वही चमार है।
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