नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
गोबर— (तेज) दादा, जिसे पेट की रोटी मयस्सर नहीं, उसके लिए मरजाद और इज्जत सब ढोंग है। औरों की तरह तुमने भी दूसरों का गला दबाया होता, लमा मारी होती तो तुम भी भले आदमी होते। तुमने कभी नीति को नहीं छोड़ा यह उसी का दण्ड है।
[सब अचरज से उसे देखते हैं; उसकी आँखों में आँसू और चेहरे पर गर्व है। वह बोलता रहता है।]
तुम्हारी जगह मैं होता तो या तो जेहल में होता या फाँसी पा गया होता। मुझ से यह कभी बरदास न होता कि मैं-कमा-कमा कर सेठ का घर भरूँ और आप अपने बाल-बच्चों के साथ मुँह में जाली लगाये बैठा रहूँ।
[गाँव के और लोग भी जाते हैं। दातादीन, मातादीन झिंगुरी, पटेश्वरी, नोखेराम, भोला, शोभा, नोहरी, दुलारी सभी हैं]
भोला— ठीक कहते हो भइया, ठीक कहते हो।
मातादीन— न जाने यह धाँधली कब तक चलती रहेगी।
पटेश्वरी— अच्छा गोबर, जा रहे हो हमारी याद रखना।
झिंगुरी— हाँ भइया, आते रहना।
दातादीन— जैसा गोबर संभला, भगवान करे सबके बेटे संभले। तुम्हारी बड़ी याद आयगी गोबर...
होरी— गोबर चल बेटा...
[गोबर मुड़ कर माँ के पैर छूता है। धनिया उसे छाती से लगा कर रो पड़ती है। फिर वह सब को राम-राम कहता है सामान उठाये एक लड़का आगे बढ़ता है। सब साथ-साथ चलते हैं।]
गोबर— (मुड़कर) अच्छा आप लोग अब लौट जायँ।
[सब लोग ‘राम-राम’ करके लौटते हैं। स्त्रियाँ धनिया के साथ जाती हैं। होरी कुछ दूर और साथ जाता है। गोबर रुकता है]
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