नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
गोबर— दादा। (पैर पकड़ लेता है। होरी लपक कर उसे छाती से लगाता है। फिर हाथ से आशीर्वाद देकर कुरते से आँखें पोंछता हुआ लौट पड़ता है। बीच में रुक कर उसे देखता है। फिर लौट आता है। अब वह उत्साह और प्रकाश से भरा है। धनिया के पास आता है। बोलने लगता है।)
होरी— धनिया। गोबर कितना बदल गया। इस बार तो उसके शीलस्नेह ने सारे गाँव को मुग्ध कर दिया।
धनिया— सब उसके मीठे व्यवहार को याद करते हैं।
होरी— धनिया गोबर सुखी। सोना सुखी। रूपा भी सुखी है। मुझे अब क्या चाहिए। बस कर्ज उतर जाय और...
धनिया— और एक गाय आ जाय।
होरी— (हँस कर) तू भी यही चाहती है?
[शोभा का प्रवेश]
शोभा— दादा। सुना एक ठीकेदार ने सड़क के लिए गाँव के ऊसर में कंकड की खुदाई शुरू की है।
होरी— सच।
शोभा— हाँ, दादा।
होरी— तब तो ठीक है। क्या देते हैं?
शोभा— आठ आने रोज।
फिर क्या है। यह काम दो महीने टिक जाय तो गाय भर को रुपये मिल जायँगे। चल शोभा मैं अभी देखता हूँ।
धनिया— अरे इतनी जल्दी क्या है।
होरी— जल्दी? गाय लेनी है। राम सेवक के रुपये अदा करने हैं।
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