नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 29 पाठक हैं |
‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
होरी— क्या करता, अपना धरम भी तो कुछ है। हीरा ने नालायकी की तो उसके बाल-बच्चों को सँभालने वाला तो कोई चाहिए था। कौन था मेरे सिवा, बता। मैं मदद न करता तो आज उसकी क्या गत होती, सोच। इतना सब करने पर तो मँगरू ने उस पर नालिश कर ही दी।
धनिया— रुपये गाड़ कर रखेगी तो क्या नालिश न होगी
होरी— क्या बकती है? खेती से पेट चल जाय यही बहुत है। गाड़ कर कोई क्या रखेगा।
धनिया— हीरा तो जैसे संसार ही से चला गया।
होरी— मेरा मन तो कहता है कि वह आयेगा कभी-न-कभी जरूर। अच्छा अब तू जा सो। मुझे नींद आ रही है।
धनिया— हाँ सो रहो। मुझे तो कभी-कभी बड़ा डर लगता है।
होरी— काहे का डर धनिया?
धनिया— क्या हालत होगी तुम्हारी। कितना मेहनत करते हो...
होरी— (हँस कर) मेहनत करने से आदमी मजबूत होता है...
धनिया— ओ हो बड़े मजबूत हो। खड़ा तो हुआ नहीं जाता। हे भगवान् !
होरी— बस भगवान पर भरोसा रख पगली। सब ठीक करेंगे, जा बस माघ आ जाय...
[दोनों उठते हैं। धनिया अन्दर आती है। होरी वहीं खाट पर लोटता है। अन्धकार छा जाता है। फिर धीरे-धीरे रात ढलती है। प्रभात होने को है। एक व्यक्ति मंच पर आता है। बाल बड़े, मुँह, सूखा, शरीर सूखा, कपड़े, तार-तार। तभी होरी आता है। वह व्यक्ति लपककर उसके कदमों पर गिर पड़ता है। होरी घबरा कर उसे उठाता है।]
होरी— कौन? कौन है?(उठ कर गौर से देखता है) कौन? हीरा?...हीरा (लपक कर छाती से लगा लेता है। तुम तो बिलकुल घुल गये हीरा, कब आये? आज तुम्हारी बार-बार याद आ रही थी। बीमार हो क्या?
|