नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
[हीरा रोता रहता है। बोलता नहीं। होरी उसका हाथ पकड़ कर गद्गद् कंठ से कहता है।]
क्यों रोते हो भैया, आदमी से भूल-चूक होती है। कहाँ रहे इतने दिन?
हीरा— (कातर स्वर) कहाँ बताऊँ दादा। बस यही समझ लो कि तुम्हारे दर्शन बदे थे, बच गया। हत्या सिर पर सवार थी। ऐसा लगता था कि वह गऊ मेरे सामने खड़ी है, हरदम, सोते-जागते कभी आँखों से ओझल न होती। मैं पागल हो गया और पाँच साल पागल खाने में रहा।
होरी— पागलखाने में रहे?
हीरा— हाँ, आज वहाँ से निकले छः महीने हुए। माँगता खाता फिरता रहा। यहाँ आने की हिम्मत न पड़ती थी संसार को कौन मुँह दिखाऊँगा। आखिर जी न माना। कलेजा मजबूत करके चला आया।
तुमने मेरे बाल-बच्चे को...
होरी— (बात काट कर) तुम नाहक भागे। अरे दारोगा को दस-पाँच देकर मामला रफा-दफा कर दिया जाता और होता क्या?
हीरा— तुमसे जीते जी उरिन न हूँगा, दादा।
होरी— मैं कोई गैर थोड़े हूँ भैया।
हीरा— तुम भी तो बहुत दुबले हो गये हो, दादा क्या हाल हो गया तुम्हारा...
होरी— (हँस कर) तो क्या यह मेरे मोटे होने के दिन थे। मोटे वह होते हैं, जिन्हें न रिन का सोच होता है न इज्जत का। इस जमाने में मोटा होना बेईमानी है। सौ को दुबला करके तब एक मोटा होता है। सोभा से भेंट हुई?...
हीरा— उससे तो रात ही भेंट हो गयी थी। तुमने तो अपनो को भी पाला, जो तुमसे बैर रखते थे उनको भी पाला और अपनी मरजाद बनाये बैठे हो।
होरी— अच्छा-अच्छा अन्दर चल। भाभी के चरन छू। रात बड़ी याद कर रही थी। जबान की कड़वी है नहीं तो...
हीरा— जानता हूँ दादा...
[दोनों अन्दर जाते हैं। परदा गिर जाता है]
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