नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
[कुछ क्षण चुप हो जाता है। फिर बड़बड़ाता है। मजूर काम पर जाते हैं। एक मजूर होरी के पास जाता है।]
मजदूर— दोपहर ढल गयी होरी। चलो झौवा उठाओ...होरी...(पास जाता है, देखता है) कैसा जी है? अरे इसकी तो देह जल रही है। हाँथ-पाँव ठण्डे हो रहे हैं। लू लग गयी है। (एकदम बाहर जाता है) अरे कोई है। होरी के घर जाना। लू लग गयी है।
[होरी पहले की तरह बड़बड़ाता है]
होरी— गोबर, गोबर रुपये हो गये। गाय आ गयी, मंगल को दूध पिला दो, धनिया तूने लाल चुँदरी पहनी है। दुलहन बनी है। धनिया...गाय क्या कामधेनु है देवी...
[तभी सहसा धनिया दौड़ी आती है। होरी को छूती है और पागल-सी देखती है। काँपती है]
धनिया— कैसा जी है तुम्हारा मैं तो पहले ही कह रही थी पर तुमने सुना भी हो...
होरी— तुम आ गये गोबर, मैंने मंगल के लिये गाय ले ली। वह खड़ी है, देखो। कैसी मस्तानी है, कैसी झूम रही है। आज कैसा शुभ दिन है। मेरे द्वार पर कामधेनु बँधी है।
धनिया— (रोते हुए) मेरी ओर देखो, मैं हूँ, क्या मुझे नहीं पहचानते। देखो जी...(होरी की चेतना लौटती है। धनिया को दीन आँखों से देखता है।)
होरी— (क्षीण स्वर) कौन?
धनिया— मैं हूँ धनिया।
होरी— धनिया। (क्षीण स्वर) मेरा कहा-सुना माफ करना। अब जाता हूँ। गाय की लालसा मन में ही रह गयी। अब तो यहाँ के रुपये क्रिया-करम में जायँगे। (धनिया रोती है) रो मत धनिया। अब कब तक जिलायेगी? सब दुर्दसा तो हो गई। अब जाने दे।
धनिया— कैसे जाने दूँ। मैं भी तो चलूँगी। गाँठ बाँध कर लाये थे अकेले कैसे जाओगे !
[वह आँखें बन्द करता है। तभी हीरा व गाँव के दूसरे लोग आते हैं। उसे खाट पर लिटाते हैं। सारा गाँव आ जाता है]
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