नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
छठवाँ दृश्य
[मंच पर गाँव की ऊसर भूमि का दृश्य। मजदूर मिट्टी की टोकरी भरे एक ओर से आते हैं दूसरी ओर जाते हैं। होरी भी है। होरी अस्वस्थ है। धनिया आती है]
होरी— तू फिर आ गयी धनिया? क्या बात है?
धनिया— बात क्या होती। सबेरे तुम्हारी देह भारी थी, अब कैसा जी है। न हो तो आज...
होरी— तू तो कभी-कभी बच्ची बन जाती है धनिया। जरा देह भारी हो गयी तो काम छोड़ दो। हम मजूर हैं, मजूर...
धनिया— मजूर के भी जी होता है। उसे भी दुख होता है।
होरी— होता होगा। तू घर जा। आराम करूँगा तो गाय कैसे आवेगी। जा...जा...मजूर के भाग में आराम नहीं होता।
[कह कर एक ओर चला जाता है। धनिया दुखी मन से काम करते देखती है फिर चली जाती है। फिर दोपहर की घंटी बजती है। मजदूर काम छोड़कर भागते हैं। होरी लड़खड़ाता हुआ आता है और एक ओर लेट जाता है। फिर उठ कर पानी पीता है। फिर कै होती है। एक मजदूर उसकी ओर आता है]
मजदूर— कैसा जी है होरी भैया?
होरी— कुछ नहीं, अच्छा हूँ।
मजदूर— खाली पेट पानी पी लिया शायद। इस लू में काम करते हो फिर कुछ खाते नहीं, पानी नुकसान कर जायगा।
[मजदूर चला जाता है। दूर कुछ मजदूर चना-चबैना करते हैं। इधर होरी को फिर कै होती है, वह बेचैन होता है]
होरी— नुकसान। अब जी के करना भी क्या है। बस गाय...तुम जाओ भइया...
होरी— माँ...गोबर...धनिया...धनिया...गाय आ गयी, मंगल को दूध पिला दे...माँ...माँ...मैं तेरी गोद में सोऊँगा...माँ, देख पटेसरी ने मेरी गुल्ली छीन ली माँ...
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