लोगों की राय

कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

158 पाठक हैं

स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


रणजीतसिंह के जन्म और बचपन का समय भारत में बड़ी हलचल और परिवर्तन का काल था। वह सिख जाति, जो गुरु गोबिंदसिंह के दिलो-दिमाग़ से उपजी थी और कई शहीदों ने जिसे अपने बहुमूल्य रक्त से सींचकर जवान किया था, साहस और वीरत्व के मैदान में अपनी पताका फहरा चुकी थी। सन् १७९२ ई० से, जब सिखों ने सरहिंद का किला जीता और जिसे अहमदशाह अब्दाली भी उनसे न छीन सका, सिखों का बल-प्रभाव वृद्धि पर था। पर यह जातीय भाव, जो कुछ दिनों के लिए उनके हृदयों में तरंगित हो उठा था, विदा हो चुका था। दलबंदी का बाज़ार गरम था और कितनी ही मिसलें क़ायम हो गई थीं, जिनमें दिन-रात मार-काट मची-रहती थी। जिस विशेष लक्ष्य को लेकर सिख जाति उत्पन्न हुई थी, वह यद्यपि कुछ अंशों में पूरा हो चुका था, पर उसकी पूर्ण सिद्धि के पहले ही खुद उन्हीं में फूट फैलाने वाली ताक़तों ने ज़ोर पकड़ लिया और मुख्य उद्देश्य उपेक्षित हो गया। १८वीं शताब्दी के अंत में मुल्क की हालत बहुत नाजुक हो रही थी। निरंकुशता और उच्छृंखलता का राज था। जिस किसी ने कुछ लुटेरे सिपाहियों को जमा कर एक दल बना लिया, वह अपने किसी कमजोर पड़ोसी को दबा कर अपनी चार दिन की हुक़ूमत क़ायम कर लेता था, और कुछ दिन बाद ही उससे अधिक बलवान व्यक्ति के लिए जगह खाली करनी पड़ती थी। न कोई कानून था, न कोई सुव्यवस्थित शासन। शांति और लोक रक्षा अनाथ बच्चों की भाँति आश्रय ढूँढ़ती फिरती थीं।

हर गाँव का राजा जुदा, क़ानून जुदा और दुनिया जुदा थी। भाईचारा सिख-वंश की एक प्रमुख विशेषता है। और केवल वही क्या, सभी धर्मों; मज़हबों में मानव बंधुत्व की शिक्षा विद्यमान है। यह शिक्षा उच्च और पवित्र है। किसी आदमी को क्या हक़ है कि दूसरे को अपने अधीन रखे और उनके अस्तित्व से खुद फ़ायदा उठाए? संसार के सुखों में हर आदमी का हिस्सा बराबर है। सिख जाति ने जब तक इस भाव का आदर किया, इसे बरता और इसका अनुसरण किया, तब तक उसका बल बढ़ता गया। पर जब अहंकार और स्वार्थपरता, लोभ और दंभ ने सिखों के दिलों में घर कर लिया, धन और अधिकार की चाट पड़ी, तो भाईचारे के भाव को गहरा धक्का पहुँचा, जिसका फल यह हुआ कि राज्यों की स्थापना हो गई और भाई-भाई में मार-काट मचने लगी। गुरु गोबिन्दसिंह ने भाईचारे का जोश पैदा किया, पर उस पारस्परिक सहानुभूति का बल न उत्पन्न कर सके, जो भाईचारे के कवच का काम करता है।

रणजीतसिंह का जन्म सन् १७८॰ ई० में गुजरानवाला स्थान में हुआ। आम ख़याल है कि उनके पिता एक गरीब जमींदार थे, पर यह ठीक नहीं है। उनके पिता सरदार महान सिंह सकर चकिया मिसिल के सरदार और बड़े प्रभावशाली पुरुष थे। पर २७ वर्ष ही की अवस्था में स्वर्ग सिधार गए। रणजीतसिंह उस समय कुल जमा १॰ साल के थे और इसी उम्र में उनके सिर पर भयावह जिम्मेदारियों का बोझ आ पड़ा। परन्तु अकबर की तरह वह भी प्रबंध और संगठनों की योग्यता माँ के पेट से लेकर निकले थे, और इस दस वर्ष की वय में ही कई लड़ाइयों में अपने पिता के साथ रह चुके थे। एक दिन एक भयानक युद्ध में वह बाल-बाल बचे। मानो उनका शैशव रणक्षेत्र में ही बीता और युद्ध के विद्यालय में ही उन्होंने शिक्षा पायी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book