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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


८-१० साल का बच्चा! उसकी आँखों से नित्य मार-काट के दृश्य गुजरते होंगे। कुटुम्ब के बड़े-बूढ़ों को चौपाल में बैठाकर किसी पड़ोसी सरदार पर हमला करने के मंसूबे बाँधते या किसी बलवान् सरदार के आक्रमण से बचने के उपाय सोचते देखता होगा, और यह अनुभव उसके कोमल संस्कारग्राही चित्त पर क्या कुछ छाप न छोड़ जाते होंगे? परवर्ती घटनाओं ने सिद्ध कर दिया कि यह अल्पवयस्क बालक तीक्ष्ण बुद्धि और प्रतिभावान् था और जो शिक्षाएँ उसे मिलीं, उसके जीवन का अंग बन गईं। उसने जो कुछ देखा, शिक्षा ग्रहण करनेवाली दृष्टि से देखा।

१२ वर्ष की अवस्था में वह सकर चकिया मिसिल का सरदार क़रार दिया गया और २॰ वें साल में कुछ अपनी बहादुरी और कुछ जोड़-होड़बाजी से लाहौर का राजा बन बैठा। इसका वृत्तांत मनोरंजक है। सन् १७९८ ई० में अहमदशाह अब्दाली का पोता अपने दादा के जीते हुए प्रदेशों पर अधिकार-स्थापना के इरादे से हिंदुस्तान पर चढ़ा और लाहौर तक चला आया। उसका विचार था कि टिककर संबद्ध स्थानों से ख़िराज वसूल करे। पर इसी बीच उसे स्वदेश में विप्लव की ख़बर मिली। घबराकर लौटा। झेलम बाढ़ पर थी, बार-बरदारी का इंतजाम ख़राब। उसकी कई तोपें उसके साथ न जा सकीं। संयोगवश रणजीतसिंह वहीं पास में ही थे। शाह जमां से मिले, तो उसने कहा–अगर तुम मेरी तोपें फारस भिजवा दो, तो इसके बदले में तुम्हें लाहौर दे दूँ। रणजीतसिंह ने यह शर्त बड़ी खुशी से मंजूर कर ली। यद्यपि शाह जमां का यह वादा कोई अर्थ न रखता था और रणजीतसिंह स्वयं शक्तिशाली न होते, तो उससे कुछ लाभ भी न उठा सकते। पर उनके निजी बल और प्रभाव पर इस प्रतिज्ञा से दुहरी चाशनी चढ़ गई। इसके थोड़े ही दिनों बाद उन्होंने अमृतसर पर भी कब्जा कर लिया और अब उनकी शक्ति और दबदबे के आगे सब मिसिलें धूमिल पड़ गईं।

यूरोपीय वृत्त-लेखकों ने रणजीतसिंह पर स्वार्थपरता, विश्वासघात, निर्दयता, बेवफाई, आदि के दोष लगाए हैं और उनके फ़तवे किसी हद तक सही भी हैं। राजनीति में पुराने आचार्यों ने भी थोड़ी-बहुत चालबाजी और कठोरता की इज़ाजत दी है, जिसे दूसरे शब्दों में बेवफ़ाई और बेरहमी कह सकते हैं। इन उपायों के बिना राज्य का नवरोपित बिरवा कभी जड़ नहीं पकड़ सकता। रही स्वार्थपरता की बात, सो यह दोष हर आदमी पर सामान्यतः और हर एक राजा पर विशेषतः घटित हो सकता है। आज तक किसी जाति में कोई ऐसा बादशाह नहीं हुआ, जिसने किसी जाति पर केवल सदुद्देश्य, मानव-हित या परोपकार की भावना से राज्य किया हो, बल्कि हमें तो इसके मानने में भी हिचक है कि यह नेकनीयती स्वार्थ को दबाए हुए थी। स्वार्थ शासन के मूल में ही बैठा हुआ है। यह भी ध्यान रहे कि रणजीतसिंह के वचन, व्यवहार और राजनीति को आज की नौतिक कसौटी पर कसना नहीं है। रणजीतसिंह ने लाहौरी दरबार की रंगभूमि पर जब अपना अभिनय किया था, उसके सौ साल का जमाना बीत चुका और इन वर्षों में सभ्यता, सदाचार और सामाजिक जीवन के आदर्श बहुत आगे निकल गए हैं।

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