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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि शत्रु के जीतने के बाद उन्होंने उसे जिंदा दीवार में चुनवा दिया हो, खुलेआम शिरच्छेद करा दिया हो या उस पर बुग्ज का बुखार निकाला हो। अकसर उन्हीं पराजित शत्रुओं पर उनका अनुग्रह होता था, जिन्होंने मर्दानिगी से उनका मुकाबला किया हो। वह स्वयं वीर पुरुष थे और वीरता का आदर करते थे। जोधसिंह वज़ीराबाद का एक सिख सरदार था। किसी कारण महाराज उस पर नाराज हुए और उसे दंड देना चाहा; पर इसके लिए सेना भेजी जाय, यह पसंद न करते थे। अतः उसे बहाने से दरबार में बुलाया और गिरफ्तार करना चाहा। जोधसिंह ने तुरन्त तलवार खींच ली और मरने मारने को तैयार हो गया। महाराज उसकी मर्दानगी पर इतने खुश हुए कि उसी जगह उसका प्रेमालिंगन किया और जब तक वह जिंदा रहा उसे मानते रहे।

रणजीतसिंह के पहले सिख-सेना अधिकतर सवारों की होती थी, पैदल तिरस्कार की दृष्टि से देखे जाते। इसके विरुद्ध यूरोप मैं पैदल सेना ही युद्ध का आधार होती थी और है। अँग्रेजी पैदल सेना अनेक बार हिन्दुस्तानी घुड़सवारों के पैर उखाड़ चुकी थी। यह देखकर महाराज ने भी अपनी सेना की कायापलट कर दी। सवारों के बदले पैदल सेना का संगठन आरंभ किया और इस कार्य के लिए फ्रांस और इटली के कई अनुभवी जनरलों को नियुक्त किया, जिनमें से कई नेपोलियन बोनापोर्ट के तिलिस्मी युद्धों में शरीक रह चुके थे। जेनरल वंचूरा उनमें सबसे अधिक कुशल था। इन सेना-नायकों के शिक्षण ने सिख पैदल सेना को यूरोप की अच्छी-से-अच्छी सेना को ललकारने लायक बना दिया था। पंजाब के चुने हुए जवान प्यादों में भरती किए जाते थे और महाराज की यह कोशिश रहती थी कि सेना का यह विभाग अधिक लोकप्रिय हो जाये। सिख पैदल सेना को परिश्रम और कष्टसहन का इतना अभ्यास था कि महीनों तक लगातार रोज २॰ मील की मंजिलें मार सकती थी। महाराज की संपूर्ण सेना करीब एक लाख थी और जागीरदारों की मिलाकर सवा लाख।

रणजीतसिंह के राज्य में पंजाब खास, सतलज और सिंध के बीच का प्रदेश, कश्मीर, मुलतान, डेराजान, पेशावर और सरहदी जिले शामिल थे। यद्यपि राज्य अधिक विस्तृत न था, पर उसमें हिंदुस्तान के वह हिस्से शामिल थे, जो प्राकृतिक अवस्था की दृष्टि से दुर्गम हैं और जहाँ लड़ाके, साहसी, किसी की अधीनता  न जानने वाले और धोखेबाज लोग बसते हैं। भारत के सम्राटों के लिए यह भू-भाग सदा परेशानियों और कठिनाइयों का भंडार साबित हुआ है। मुगल बादशाहों के समय अक्सर यहाँ फ़ौज भेजनी पड़ती थी और यह चढ़ाइयाँ परिणाम की दृष्टि से तो नगण्य होती थीं, पर खर्च और रक्तपात के विचार से बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती थीं। यह प्रदेश जाहिल और कट्टर मुसलमान जातियों से आबाद है, जो शिक्षा और सभ्यता से बिलकुल कोरे हैं और जिनके जीवन का उद्देश्य चोरी, डाका और लूट है। और यद्यपि यह भूखंड पचास साल से अंग्रेजी राज्य की मंगलमयी छाया के नीचे है, फिर भी अज्ञान और अन्धकार के उसी गहरे गढ़े में गिरा हुआ है। यह लोग जब मौका पाते हैं, सरहद के हिंदुओं और वह न मिलें, तो मुसलमानों पर ही अपनी बर्बरता चरितार्थ कर लेते हैं। रणजीतसिंह को इन जातियों से बहुत नुकसान उठाने पड़े। तज़रबेकार अफ़सर और चुनी हुई पलटनें अकसर इन्हीं सरहदी झगड़ों की नजर हो जाया करती थीं। यों तो बारहों मास छेड़छाड़ होती रहती थी, पर लगान की वसूली का जमाना दूसरे शब्दों में युद्घकाल होता था। रणजीतसिंह को अगर दक्षिण दिशा में राज्य-विस्तार की सुविधा होती, तो संभवतः वह इन सरहदी इलाकों की ओर ध्यान न देते। पर दक्षिण में तो ब्रिटिश सरकार ने उनके बढ़ने की ओर हद बाँध दी थी और पटियाला, नाभा, झींद आदि सिख राज्यों को अपने प्रभाव में ले लिया था।

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