कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह) कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है
सिखों को मुलसमानों से कोई लाभ न पहुँचा था, बल्कि उलटा उन्होंने सिखों का अस्तित्व मिटा देने में कोई यत्न नहीं उठा रखा था, रणजीतसिंह इस संकीर्णता से सर्वथा मुक्त थे, उनके दरबार में कई प्रमुख पदों पर मुसलमान नियुक्त थे। फकीर अजीजुद्दीन, नूरुद्दीन, इमामुद्दीन सबके-सब ऊँचे पदों पर थे। ब्राह्मण, खत्री, राजपूत, हरएक जाति से उन्होंने राज्य-प्रबन्ध में सहायता ली। जहाँ भी उन्हें गुण दिखाई दिया, उसकी कद्र की। राजा दीनानाथ, दीवान मुहकमचंद, रामपाल मिश्र, दीवान साँवलमल लाहौर दरबार के स्तम्भों में थे और बड़े-बड़े महत्त्व के कार्यों पर नियुक्त थे।
रणजीतसिंह की सूक्ष्मदर्शी दृष्टि ने ताड़ लिया था कि अगर न्याय और क्षेम-कुशल की नीति से राज्य करना है, तो उन जातियों की सहायता के बिना काम नहीं चलेगा, जो बहुत दिनों से राज्य-कार्य में भाग लेती आई हैं। सिखों ने इस समय तक युद्धक्षेत्र के सिवा शासन-प्रबन्ध में अपनी योग्यता का परिचय नहीं दिया था। अतः सैनिक-पद अधिकतर सिखों के हाथ में थे। दीवानी और माल के पद मुसलमानों ब्राह्मणों, खत्रियों और कायस्थों के हाथ में थे, पर फौजी चढ़ाइयों में सेनापति अवसर उपयुक्त अधिकारी ही बनाये जाते थे।
उस समय से अब तक इस निष्पक्षता को निभाना सिख राजाओं ने अपना सिद्धांत बना रखा है, खासकर नाभा; पटियाला, कपूरथला और झींद में, जो सिखों की सबसे बड़ी रियासतें हैं, यह उदार विचार विशेष रूप से दिखाई देता है। हाँ, इस्लामी रियासतों में स्थिति इसकी उलटी है। हैदराबाद को छोड़कर, जहाँ एक हिन्दू सज्जन मंत्री के पद पर प्रतिष्ठित हैं, और शायद कोई ऐसी रियासत नहीं, जहाँ पर धर्मगत उदारता से काम लिया जाता हो। हिंदुओं को कट्टर और अनुदार कहना सहज है, पर वस्तुस्थिति इसकी उलटी है। अभी हाल में ही महाराज जयपुर ने एक मुसलमान सज्जन को दीवान बनाया है। क्या यह हिंदुओं की संकीर्णता है?
उस जमाने में अकसर अदूरदर्शी नरेशों की यह रीति थी, कि शत्रु पर विजय पाने के बाद उसे मटियामेट कर देते, या ऐसा कठोर व्यवहार करते कि उसके हृदय में प्रतिहिंसा और द्वेष की आग भड़कती रहती थी। पर रणजीतसिंह की नीति इस विषय में मनुष्यता और भद्रता की नीति थी, जो यद्यपि आज की रीति-नीति के अनुसार साधारण व्यवहार है; पर उस तूफानी जमाने का ख्याल करते हुए अति असाधारण बात थी। राणजीतसिंह शत्रु पर विजय पाने के बाद उसके साथ ऐसे सौजन्य और शिष्टता का व्यवहार करते कि वह उनकी दोस्ती का दम भरने लगता। कठोरता के बदले वह उसे सौजन्य और अनुग्रह की साँकल में बाँधते थे। कई बार घेरा डालने के बाद मुलतान पर उनका कब्जा हुआ और नवाब मुजफ्फर खाँ अपने पाँच बेटों तथा तीन सौ स्वजनों के साथ किले के दरवाजे पर मारा गया, तो उन्होंने नवाब के दो बाकी लड़कों को दरबार में बुला लिया और उनके वजीफे मुकर्रर कर दिए। इसी तरह मुहम्मद यार खाँ तिवाना और दूसरे पराजित सरदारों के साथ भी उन्होंने भलमनसी का बरताव कायम रखा।
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