कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह) कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है
घातक अपनी घात में बैठे हुए थे, पर जंगबहादुर ने पहुँचकर उन्हें घेर लिया। उन्हें जान बचाने का मौका न मिला। कितने ही वहीं तलवार के घाट उतार दिए गए। रानी साहिबा रक्त-सने हाथों सहित पकड़ ली गईं। उन पर युवराज और प्रधान मन्त्री की हत्या की साज़िश का अभियोग लगाया गया। प्रमाण प्रस्तुत ही थे, रानी को बचने का मौका न मिला। मन्त्रिमंडल के सामने यह मामला पेश हुआ और रानी को सदा के लिये नेपाल से निर्वासन का दंड दिया गया। उनके दोनों बेटों ने उनके साथ रहने में ही जान की खैरियत समझी। जंगबहादुर ने इसमें रुकावट न की, बल्कि बड़ी उदारता के साथ रानी साहिबा के खर्च के लिए खजाने से १८ लाख रुपया देकर उन्हें बिदा किया गया।
इस घटना से यह प्रकट होता है कि जंगबहादुर कैसे जीवट और कलेजे के राजनीतिज्ञ थे और स्थिति को किस प्रकार अपने अनुकूल बना लेते थे। महारानी लक्ष्मीदेवी की शक्ति और प्रभाव को दम भर में मिटा देना कोई आसान काम न था। जिस रानी के भय से सारा नेपाल थर-थर काँपता था, उसकी शक्ति को उनकी नीति-कुशलता ने देखते-देखते धूल में मिला दिया।
महाराज बहुत दिनों से काशी-यात्रा की तैयारी कर रहे थे। रानी का देश-निकाला हुआ, तो वह भी उनके साथ जाने को तैयार हो गए। जंगबहादुर ने बहुत समझाया कि इस समय रानी साहिबा के साथ आपका जाना उचित नहीं। आपका बुरा चाहने वाले लोग कुछ और ही माने निकाल सकते हैं, पर महाराज ने हठ पकड़ लिया। युवराज सुरेन्द्रविक्रम उनके उत्तराधिकारी स्वीकार किए गए। जंगबहादुर ने यह चतुराई की कि अपने कुछ विश्वासी आदमियों को महाराज के साथ कर दिया, जिससे वह उनकी चेष्टाओं की सूचना देते रहें। महाराज जैसे अव्यवस्थित और अधिकार लोलुप थे, उससे उन्हें डर था कि कहीं वह दुष्टों के बहकाने में न आ जायँ और आशंका ठीक निकली।
काशी में नेपाल के कितने ही खुराफाती निर्वासित सरदार रहते थे। उन्होंने महाराज को उकसाना आरम्भ किया कि नेपाल पर चढ़ाई करके जंगबहादुर के शासन का अन्त कर दें। महाराज पहले तो इस जाल में न फँसे, पर दिन-रात के संग-साथ और उकसाने-भड़काने ने अन्त में अपना असर दिखाया। महाराज को विश्वास हो गया कि जंगबहादुर सचमुच युवराज के नाम पर नेपाल पर खुद राज्य कर रहा है। वह जब नेपाल की ओर लौटे तो दुष्टों का एक दल, जिसमें २॰॰ से कम आदमी न थे, उनके साथ चला। नेपाल की सरहद पर पहुँचकर महाराज सोचने लगे कि अब क्या करना उचित है। महारानी से पत्रव्यवहार हो रहा था और हमले की तैयारी जारी थी। बागियों में मन्त्री, सेनानायक, कोषाध्यक्ष सब नियुक्त हो गए। व्यवस्थित रूप से सेना की भरती होने लगी। जंगबहादुर के खास आदमियों ने महाराज को बहुत समझाया कि आप इस कार्यवाई से बाज़ रहें, पर वह अपनी धुन में कब किसी की सुनते थे। मुंह पर तो यही कहते थे कि यह सब अफ़वाहें गलत हैं, पर भीतर-भीतर पूरी तैयारी कर रहे थे।
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