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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


उधर वहाँ की हरएक बात की सूचना प्रतिदिन जंगबहादुर को मिलती रही। उनको डर लगा कि कहीं इस उपद्रव की आग सारे नेपाल में न फैल जाय और उसका उपाय कर देना आवश्यक समझा। उन्होंने सारी सेना और सरदारों को तलब किया और महाराज की छिपी तैयारियों का पूरा हाल सुनाकर उन्हें राज्यच्युत कर देने का प्रस्ताव उपस्थित किया। सेना ने उनको अपना अफसर मानने और उनकी आज्ञा पर मरने-मारने को तैयार रहने की शपथ ली। महाराज के पास पत्र भेजा गया, जिसमें उन पर राज्य से बाग़ी होकर उस पर चढ़ाई करने का अभियोग लगाया गया था, और उनकी जगह युवराज के सिंहासनासीन होने की सूचना दी गई थी। महाराज पत्र पाते ही आग हो गए, सलाहकारों ने उसमें और घी उँडेल दिया। दो हज़ार जवान भरती हो चुके थे। उन्हें काठमाण्डू पर धावा करने का हुक्म दिया गया। जंगबहादुर ने कुछ रेजीमेंटें मुक़ाबले के लिए भेजीं। बाग़ी भगा दिये गये। महाराज नजर बन्द कर लिये गए और उन पर कड़ी निगरानी रखने का प्रबन्ध कर दिया गया। मंत्रिपद पाने के दूसरे साल में जंगबहादुर इतने लोकप्रिय हो गए और प्रजा को उन पर इतना भरोसा हो गया, कि स्वयं महाराज को भी उनके मुकाबिले में हार खानी पड़ी।

इस संघर्ष से छुटकारा पाने के बाद जंगबहादुर ने सेना और शासन-प्रबन्ध के सुधारों की ओर ध्यान दिया और प्रजा की कितनी ही पुरानी शिकायतें दूर कीं। आरम्भिक जीवन में उन्हें सरकारी कर्मचारियों से भुगतना पड़ा था और साधारण कष्टों का उन्हें निजी अनुभव था। तीन-चार वर्ष के प्रधान मंत्रित्व में ही वह इतने लोकप्रिय हो गए कि लोग राजा को भूल गए और उन्हीं को अपना सब कुछ समझने लगे। खासकर सैनिक तो उन पर जान देते थे। इस बीच उनसे पुरानी जलन रखने वाले कुछ आदमियों ने उन्हें क़तल करने की साजिश की, पर हर बार वे किसी-न-किसी प्रकार पहले से सावधान हो जाते थे। महाराज सुरेन्द्रविक्रम ने राज्य प्रबन्ध के सब अधिकार उन्हीं के हाथ में रखे थे, और खुद उसमें बहुत कम दखल देते थे। वही विकृत मस्तिष्क युवराज अब बहुत ही बुद्धिमान और न्यायशील राजा हो गया था।

जंगबहादुर अंग्रेजों के साहस, अवसर पहचानने की योग्यता और प्रबंध-कुशलता के बड़े प्रशंसक थे और उस देश को देखने की इच्छा रखते थे, जहाँ ऐसी जाति उत्पन्न हो सकती है। अतः मार्च १८५॰ ई० में वह अपने कई सम्बन्धियों और विश्वासपात्र सरदारों के साथ विलायत को रवाना हुए और इँग्लैंड, फ्राँस में घूमते हुए १८५१ ई० में वापस आये। इँग्लैंड में उनकी खूब आवभगत हुई और उन्हें अंग्रेज समाज को देखने समझने का भरपूर अवसर मिला। इसमें संदेह नहीं कि वह वहाँ से प्रगतिशीलता, दृष्टि की व्यापकता और सुप्रबंध की बहुमूल्य शिक्षाएँ लेकर लौटे। उसी समय से अंग्रेज जाति के साथ नेपाल की मित्रता हुई और वह आज तक बनी है।

उनके विलायत से लौटने के थोड़े ही दिन बाद नेपाल को तिब्बत से लड़ना पड़ा और उनकी मुस्तैदी तथा प्रबंध-कुशलता से उसकी जीत पर जीत होती रही। अंत में १८५५ में तिब्बत ने विवश होकर नेपाल से सुलह कर ली। इस संधि से नेपाल को व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त हुईं। महाराज ने ऐसे नीतिकुशल कार्यक्षम मंत्री के साथ और गाढ़ा सम्बन्ध जोड़ने के विचार से अपनी लड़की जंगबहादुर के लड़के के साथ ब्याह दी।

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