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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


जंगबहादुर को शिकार का बहुत शौक था और इसी शिकार की बदौलत एक बार मरने से बचे। उनका निशाना कभी चूकता ही न था। रण-विद्या के पूरे पंडित थे। सिपाहियों की बहादुरी की कद्र करते थे और इसीलिए नेपाल की सारी सेना उन पर जान देती थी।

जंगबहादुर यद्यपि उस युग में उत्पन्न हुए, जब हिंदू जाति निरर्थक रूढ़ियों की बेड़ी में जकड़ी हुई थी; पर वह स्वतन्त्र तथा प्रगतिशील विचार के व्यक्ति थे। नेपाल में एक नीच जाति के लोग बसते हैं, जिन्हें कोची मोची कहते हैं। ऊँची जातिवाले उनसे बहुत दुराव-बिलगाव रखते हैं। वे कुओं से पानी नहीं भरने पाते। उनके मुखियों ने जब जंगबहादुर से फरियाद की, तो उन्होंने एक बड़ी सभा की, जिसमें उक्त जाति के लोगों को भी बुलाया और भरी सभा में उनके हाथ का जल पीकर उन्हें सदा के लिए शुद्ध तथा सामाजिक दासत्व और अपमान से मुक्त कर दिया।

भारत के बुद्धिभक्तों में कितने ऐसे हैं, जो आधी शताब्दी के बीत जाने पर भी किसी अछूत के हाथ से जल ग्रहण करने का साहस कर सकें? फिर भी जंगबहादुर उस ‘पश्चिमी प्रकाश’ से वंचित थे, जिस पर हम शिक्षित हिंदुओं को इतना गर्व है। इसका यह अर्थ नहीं कि वह खान-पान में भी ऐसे ही स्वाधीन थे। इंग्लैंड के प्रवास काल में वह किसी दावत में खाने के लिए शरीक नहीं हुए। वह आवश्यक और अनावश्यक सुधार में भेद करना जानते थे। निडर ऐसे थे कि न्याय के प्रश्न पर स्वयं महाराज का भी विरोध करने में नहीं चूकते थे। प्रजा को राजकर्मचारियों के उत्पीड़न से बचाने का यत्न करते थे, और किसी कर्मचारी को पकड़ पाते, तो कड़ी सज़ा देते थे।

सारांश, उस जमाने में राणा जंगबहादुर की दम गनीमत थी। ऐसे राजनीतिज्ञ हिंदुस्तान की दूसरी रियासतों में होते तो संभव है, उनमें से कुछ आज भी जीवित होतीं। पंजाब, सतारा, नागपुर, अवध, बरमा आदि इसी काल में अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित हुए। संभव है कि अंग्रेज सरकार कुछ अधिक सहनशीलता दिखाती, तो कदाचित् उनका अस्तित्व बना रहता, पर खुद उन राज्यों में से ऐसे नीतिज्ञ या शासक न थे, जो उन्हें इस भँवर से सही-सलामत निकाल ले जाते।

यद्यपि सारा नेपाल जंगबहादुर पर जान देता था और उनके बल-प्रभाव के सामने महाराज भी दब गए थे, फिर भी राज्य के सरदारों के बहुत आग्रह करने पर भी, राजा के करने के कामों को उन्होंने सदा अपने मन में से दूर रखा। उस काल में भारत के दूसरे राज्यों के कर्णाधारों में जैसा संघर्ष और खींचातानी चल रही थी, उसे देखते हुए इस देश के लिए जंगबहादुर का आत्मत्याग इसे कह सकते हैं।

१८७६ ई० फरवरी महीने में जंगबहादुर शिकार खेलने गये थे। वहीं ज्वर-ग्रस्त हुए और साधारण-सी बीमारी के बाद २५ फरवरी को नश्वर संसार से विदा हो गए।

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