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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


लगातार कई साल अविराम श्रम करते रहने के कारण जंगबहादुर का स्वास्थ्य कुछ बिगड़ रहा था। इसलिए १८५६ ईं० में उन्होंने प्रधान मंत्रित्व से इस्तीफा दे दिया; पर नेपाल उन्हें इतनी आसानी से छोड़ न सकता था। देश के प्रभावशाली लोग इकट्ठा होकर उनके पास पहुँचे और इस्तीफा वापस लेने का अनुरोध किया। यहाँ तक कि उन्हें महाराज के बदले गद्दी पर बिठाने को भी तैयार हो गए। पर जंगबहादुर ने कहा कि जिस व्यक्ति को मैंने अपने ही हाथों राजसिंहासन पर बैठाया, उससे लड़ने को किसी तरह तैयार नहीं हो सकता। महाराज ने जब उनके इस त्याग की बात सुनी, तो प्रसन्न होकर दो समृद्ध जिले उन्हें सौंप दिये और महाराज की उपाधि भी प्रदान की। जंगबहादुर इन जिलों के स्वाधीन नरेश बना दिए गए और प्रधान मंत्री का पद भी वंशगत बना दिया गया। इस अनुग्रह-अनुरोध से विवश होकर जंगबहादुर आरोग्य-लाभ होते ही प्रधान मंत्री की कुरसी पर जा बिराजे।

इसी समय हिंदुस्तान में विप्लव की आग भड़क उठी। बागियों का बल बढ़ते देख, तत्कालीन वाइसराय लार्ड केनिंग ने जंगबहादुर से मदद माँगी। उन्होंने तुरन्त ही रेजीमेंटें रवाना कर दीं और थोड़े समय बाद स्वयं बड़ी सेना लेकर आये। गोरखपुर, आज़मगढ़, बस्ती, गोंडा आदि में बागियों के बड़े-बड़े दलों को छिन्न-भिन्न करते हुए लखनऊ पहुँचे और वहाँ से बागियों को निकालने में बड़ी मुस्तैदी से अँग्रेज अफसरों की सहायता की। उनकी धाक ऐसी बैठी कि बागी उनका नाम सुनकर थर्रा जाते थे इस प्रकार विप्लव का दमन करके वह नेपाल वापस गये। पर जब बागियों का एक दल आश्रय के लिए नेपाल पहुँचा; तो जंगबहादुर ने उनके निर्वाह के लिये काफी जमीन दे दी। उनकी संतान आज भी तराई में आबाद है।
 
जंगबहादुर ने सन् १८७६ ई० तक राजकाज सम्हाला और देश में अनेक सुधार किये। जमीन का बन्दोबस्त और उत्तराधिकार-विधान का संशोधन उन्हीं की बुद्धिमानी और प्रगतिशीलता के सुफल हैं। उन्हीं के सुप्रबंध की बदौलत फूट-फसाद दूर होकर देश सुखी-सम्पन्न बना। जहाँ हाकिम की मरजी ही कानून थी, वहाँ उन्होंने राज्य के हर विभाग को नियम और व्यवस्था से बाँध दिया।

जंगबहादुर स्थिर चित्त और नियम-निष्ठ राजनीतिज्ञ थे। इसमें संदेह नहीं कि प्रधान मंत्रित्व प्राप्त करने के पहले उन्होंने सदा सत्य और न्याय को अपनी नीति नहीं बनाया, फिर भी उनका मंत्रित्व काल नेपाल के इतिहास का उज्जवल अंश है। वह राजपूत थे और राजपूती धर्म को निभाने में गर्व करते थे। सिख राज्य के ह्रास के बाद महारानी चंद्रकुंवर चुनार के किले में नज़रबंद की गईं। पर वह इस कारावास को सहन न कर सकीं और लौंडी के भेस में किले से निकलकर लंबी यात्रा के कष्ट झेलते हुये किसी प्रकार नेपाल पहुँची तथा जंगबहादुर को अपने इस विपद्ग्रस्त दशा में पहुँचाने की सूचना भेजी। जंगबहादुर ने प्रसन्नचित्त से उनका स्वागत किया २५ हजार रुपया उनके लिए महल बनाने के लिए दिया और ढाई हजार रुपया माहवार गुजारा बाँध दिया। ब्रिटिश रेजीमेंट ने उन्हें अंग्रेज सरकार की नाराजगी का भय दिखलाया, पर उन्होंने साफ़ जवाब दिया कि मैं राजपूत हूँ, और शरणागत की रक्षा करना अपना धर्म समझता हूँ। हाँ, उन्होंने यह विश्वास दिलाया कि रानी चन्द्रकुंवर अंग्रेज सरकार के विरुद्ध कोई कार्रवाई न करने पाएँगी। रानी चन्द्र का महल वहाँ अभी तक क़ायम है।

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