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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


हद हो गई कि जब रास्ते में हुमायूँ का घोड़ा चल बसा, तो वज्रहृदय तरदी बेग ने, जो उसके बाप का मित्र और खुद उसका मन्त्री था, इस विपदा से मारे बादशाह को अपने अस्तबल से एक घोड़ा देने में भी इनकार कर दिया, जिससे उसको ऊँट की ऊबड़-खाबड़ सवारी नसीब हुई। स्पष्ट है कि एक तुर्क के लिए, जो मानो माँ के पेट से निकल कर घोड़े की पीठ पर ही आँख खोलता है, इससे बढ़कर क्या विपत्ति हो सकती है! गनीमत हुई कि उसके एक दोस्त नहीमखाँ को, जो बेचारा अपनी बूढ़ी माँ को अपने घोड़े पर सवार करके खुद पैदल जा रहा था, दया आ गई और उसने अपना घोड़ा हुमायूँ की नजर करके उसके ऊँट पर अपनी माँ को बिठा दिया। ग़ज़ब यह है कि हालत तो ऐसी हो रही है कि रोंगटा-रोंगटा दुश्मन मालूम होता है, धरती-आकाश फाड़ खाने को दौड़ता है, पर इस परदेश और विपदाकाल में हुमायूँ की चहेती बीवी हमीदा बानू बेगम भी साथ है। वह भी इस हाल में कि पूरे दिन हैं और हर कदम पर डर है कि कहीं प्रसव-पीड़ा का सामना न करना पड़े।

खैर, खुदा-खुदा करके किसी तरह यह असहाय काफिला सिंध के सपाट जंगलों को पार करता हुआ अमरकोट पहुँचा और वहाँ पाँव रखने को जगह भी मिली; पर भेड़िया बने हुए भाई सब ओर से ताक में लगे हुए थे। इस कारण उसे पत्नी को वहीं छोड़, उनके मुकाबिले के लिए रवाना होना पड़ा। इस समय बेचारी हमीदा बानू की जो दशा होगी, ईश्वर दुश्मन को भी उसमें न डाले। न तन पर कपड़ा, न पेट के लिए खाना, न कोई मित्र, न सहायक; यहाँ तक कि पति भी जान के सौदे में लगा हुआ, उस पर पराया देश और पराये लोग। पर जिस तरह गहरे सूखे के समय सब ओर से काली घटाएँ उठकर क्षण भर में तृण से रहित धरती को शस्य-श्यामल बना देती हैं, या अचानक घनघोर अंधकार में दल-बादल फटकर भूमंडल को प्रभाकर की तरह प्रखर किरणों से आलोकित कर देता है या जिस तरह–

सितारा सुबहे इशरत का शबे मातम निकलता है। (दुःख-निशा के अवसान पर सुख-सूर्य का उदय होता है।)

उसी तरह तारीख ५ रजब सन् ९४४ हिज्री (१४ अक्टूबर १५४२ ई०) रविवार की रात्रि में उस मंगल नक्षत्र का उदय हुआ, जो अंत में दुनिया का सूरज बनकर चमका।

अकबर जैसे दुर्दिन में जन्मा था, वैसी ही असहाय अवस्था में उसका बचपन भी बीता। अभी पूरा एक बरस भी न होने पाया था कि मिरज़ा असकरी के विश्वासघात के भय से माँ-बाप का साथ छूटा और निर्दयी चचा के हाथ पड़ा। पर भगवान् भला करें उसकी बीवी सुलतान बेगम और अकबर की दाइयों माहम बेगम और जीजी अतूका का, कि बच्चे को किसी प्रकार का कष्ट न होने पाया। जब अकबर दो साल से कुछ ऊपर हुआ, तो हुमायूँ ने फिर काबुल को विजय किया, और उसे पिता के दर्शन नसीब हुए। पर अभी पाँच बरस का न हुआ था कि फिर जालिम क़ामरान के हाथ पड़ गया और जब हुमायूँ काबुल के किले पर घेरा डालने में लगा हुआ था, एक मोरचे पर जहाँ ज़ोर-शोर के गोले बरस रहे थे, इस नन्हीं-सी जान को बिठा दिया गया कि काल का ग्रास बन जाए। पर धन्य है माहम के स्नेह और कर्त्तव्यनिष्ठा को कि उसको अपनी देह से छिपाकर मोरचे की ओर पीठ करके बैठ गई।

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