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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


स्पष्ट है कि ऐसी विपत्ति और परेशानी की हालत में पढ़ाई-लिखाई तो क्या, किसी भी बात का प्रबन्ध नहीं हो सकता, और इसी लिए अकबर पिता की शिक्षाप्रद छाया से पृथक् होकर साक्षरता से भी वंचित रह गया। पर जिस प्रकार असहायता की गोद में उसका पालन-पोषण हुआ, उसी प्रकार उसकी शिक्षा-दीक्षा भी विपद के महाविद्यालय में हुई। और यह उसी का फल है कि आरम्भ में ही उसमें वह उच्च मानवगुण उत्पन्न हो गए, जो जीवन-संघर्ष में विजयलाभ के लिए अनिवार्य आवश्यक हैं। बारह बरस आठ महीने की उम्र में वह सरहिंद की लड़ाई में शरीक हुआ, और अभी पूरे १४ साल का न होने पाया था कि हुमायूँ के अचानक परलोक सिधार जाने से उसको अनाथत्व का पद और राज्य का छत्र मिला। तारीख २ रबी उस्मानी सन् ९६३ हिज्री (१५५६ ई०) को वह राज्यसिंहासन पर आरूढ़ हुआ।

बादशाह बालक और राज्य-विस्तार नहीं के बराबर थे, पर उसके शिक्षक और संरक्षक बैरम खाँ की स्वामिभक्ति और कार्य-कुशलता हर समय आड़े आने को तैयार रहती थी। आरम्भ के युद्धों में बैरम खाँ ने बड़ी ही नीति-कुशलता और वीरता का परिचय दिया। यह इसी का फल था कि अफ़गान षड्यंत्रों की जड़ उखड़ गई और हिंदुस्तान का काफी बड़ा हिस्सा मुग़ल साम्राज्य में सम्मिलित हो गया। (राज्यारोहण के पहले ही वर्ष में जब पठानों का प्रसिद्ध सेनानायक हेमू बक्काल (हेमचंद्र) गिरफ्तार होकर आया, तो बैरम खाँ के आग्रह करने पर भी उच्चमना अकबर ने अपनी तलवार एक असहाय कैदी के रक्त से रँगना पसंद न किया।) पर चार बरस की खुद मुख्तारी ने कुछ तो बैरम खाँ का सिर फिराया और इधर वयोवृद्धि के साथ अकबर ने भी पर-पुरज़े निकाले, और कुछ दूसरे सरदारों के हृदय में ईर्ष्या की आग सुलगी, और उन्होंने तरह-तरह के बादशाह को शासन की लगाम अपने हाथ में लेने के लिए उभारा। नतीजा यह हुआ कि बैरम खाँ के प्रभाव का सूर्य अस्त हो गया और अकबर ने प्रत्यक्ष रूप से देश का शासन आरम्भ किया।

करीब बीस साल तक अकबर हिंदुस्तान के भिन्न-भिन्न सूबों को जीतने, अपने बाग़ी सरदारों की साज़िशों को तोड़ने और बग़ावतों को दबाने में लगा रहा। यहाँ तक कि पंजाब और दिल्ली के सूबों के सिवा, जो उसे विरासत में मिले थे, काबुल, कंधार, कश्मीर, सिंध, मेवाड़, गुजरात, अवध, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, अहमदनगर, मालवा और खानदेश सब उसकी राज्यपरिधि के भीतर आ गए। अर्थात् पच्छिम में उसके राज्य का डाँड़ा हिंदकुश से मिला हुआ था, और पूरब में बंगाल की खाड़ी से; उत्तर में हिमालय से टकराता था, तो दक्षिण में पच्छिमी घाट से। ये विजयें केवल अकबर के सेना नायकों की रण-कुशलता का ही सुफल न थीं, बल्कि इनमें पूरे तौर से खुद भी उसने अपनी बुद्धिमानी, दूरदर्शिता, मुस्तैदी, अथक परिश्रम, निर्भीकता और जागरूकता का प्रमाण दिया था। उसके सेनापति जब सुदूर प्रदेशों की चढ़ाई में लगे होते थे और वह ज़रा भी उनको गलत रास्ते की ओर झुकता हुआ देखता या उनकी कोशिशों में ढिलाई पाता, तो अचानक बिजली की तरह, एक-एक हफ्ते की राह एक-एक दिन में तै करके उनके सिर पर जा धमकता था। मालवा, गुजरात और बंगाल की चढ़ाइयाँ आज तक उसकी मुस्तैदी और जवाँमर्दी की गवाही दे रही हैं।

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