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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


हिंदुओं की ऊँची जातियों में विधवाओं के पुनर्विवाह की प्रथा न होने से समाज-व्यवस्था में जो खराबियाँ पड़ती हैं, वे किसी से छिपी नहीं हैं। और यद्यपि ऐसे मामलों में कानूनी हस्तक्षेप उचित नहीं है, पर अकबर ने इस विषय में बड़ी दूरदर्शिता से काम लिया और यह अति हितकर नियम बना दिया कि अगर कोई विधवा पुनर्विवाह करना चाहे, तो उसको रोकना अपराध होगा। इनमें अधिकतर वे महत्त्वपूर्ण सुधार हैं, जिनके लिए आजकल समाज-सुधारक जोर दे रहे हैं, पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कोई नहीं सुनता। सती की क्रूर-कुत्सित प्रथा के अंत का श्रेय भी अकबर ही को प्राप्त है। और अपने विधानों से उसको ऐसा प्रेम था कि जब राजा जयमल बंगाल की चढ़ाई में रास्ते में चाँसा पहुँचकर गत हो गया और उसके सम्बन्धियों ने उसकी रानी को सती होने पर विवश किया, तो अकबर खुद लम्बी मंजिलें मारकर वहाँ जा पहुँचा और उनको इस कुत्सित कार्य से बाज़ रखा।

विद्या आत्मा का आहार और जाति की उन्नति का आधार है, इसलिए अकबर ने इस ओर भी पूरा ध्यान दिया और उपयुक्त पाठ्यक्रम निर्धारित करके शिक्षा-प्रणाली में भी ऐसे हितकर सुधार किए कि बक़ौल अबुलफ़जल के जो बात बरसों में हो पाती थी, वह महीनों में होने लगी। शराब, ताड़ी आदि पर कर लगाकर जनसाधारण के अनाचार को उसने अपना ख़ज़ाना भरने का साधन नहीं बनाया; पर इसके साथ-साथ लोगों के वैयक्तिक जीवन में हस्तक्षेप न करने की नीति के अनुसार यह भी ताकीद कर दी कि अगर कोई छिपा-छिपाकर नशीली चीजों का इस्तेमाल करे, तो उससे रोक-टोक न की जाए।

वर्तमान काल में हमारे राजनीतिक सुधारक आबकारी कर और मादक द्रव्यों पर जैसी आपत्तियाँ किया करते हैं, उसकी व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं, और न यह बताने की ही कि अकबर के प्रबंध पर वह कहाँ तक चरितार्थ हो सकती है। धान्य और पशुओं की वृद्धि तथा कलाकौशल की उन्नति के लिए उसने यह उपाय किया कि एक-एक वस्तु की उन्नति के लिए एक-एक अधिकारी को जिम्मेदार बना दिया। और इस बात की निगरानी के लिए, कि उन्होंने अपने उस विशेष कर्तव्य के पालन पर कहाँ तक ध्यान दिया, नौ-रोज के उत्सव के बाद खास शाही महल में एक बड़ा बाजार लगता था, जिसमें खुद बादशाह, प्रमुख  अधिकारी और दरबारी तथा राजकुल की महिलाएँ खरीद-बिक्री करती थीं। हर आदमी अपना कमाल दिखाने की कोशिश करता था।

इस बाजार को वर्तमान काल की प्रदर्शनियों का मूल मान सकते हैं। और प्रकार से भी उसे व्यापार-व्यवसाय की उन्नति का अत्यधिक ध्यान रहता था, जिसका एक बहुत छोटा-सा प्रमाण दलालों की नियुक्ति है। ग़रीबों की मदद के लिए राजधानी के बाहर दो विशाल भवन ‘खैरपुरा’ और ‘धर्मपुरा’ के नाम से बनवाए गये, जिनमें से एक मुसलमानों के लिए था, दूसरा हिंदुओं के लिए। इनमें हर समय हर आदमी को तैयार खाना मिलता था। इन मकानों में जब जोगी बहुत ज्यादा जमा होने लगे, जिससे दूसरों को तकलीफ़ होने लगी, तो उनके लिए एक अलग मकान ‘जोगीपुरा’ के नाम से बनवाया गया।

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