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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


धीरे-धीरे हिंदू-दर्शन के लिए प्रेमियों की संख्या इतनी बढ़ गई कि स्वामीजी दिन-रात श्रम करके भी उनकी पिपासा तृप्त न कर सकते थे। अमरीका जैसे व्यापारी देश में एक हिंदू संन्यासी का भाषण सुनने के लिए दो-दो हजार आदमियों का जमा हो जाना कोई साधारण बात नहीं है। अकेले सानफ्रांसिस्को नगर में आपने हिंदू दर्शन पर पूरे पचास व्याख्यान दिये। श्रोताओं की संख्या दिन-दिन बढ़ती गई और अध्यात्म तत्त्व के प्रेमियों की तृप्ति केवल दार्शनिक व्याख्यान सुनने से न होती थी। साधन और योगाभ्यास की आकांक्षा भी उनके हृदयों में जगी। स्वामीजी ने उनकी सहायता से सानफ्रांसिस्को में ‘वेदांत सोसाइटी’ और ‘शांति-आश्रम’ स्थापित किया और दोनों पौधे आज तक हरे-भरे हैं। शांति-आश्रम नगर के कोलाहल से दूर एक परम रमणीय स्थान पर स्थित है और उसका घेरा लगभग २॰॰ एकड़ है। यह आश्रम एक उदार धर्मानुरागिनी महिला की वदान्यता का स्मारक है।

स्वामीजी न्यूयार्क में थे कि पेरिस में विभिन्न धर्मों का सम्मेलन करने की आयोजना हुई और आपको भी निमंत्रण मिला। उस समय तक आपने फ्रांसीसी भाषा में कभी भाषण न किया था। यह निमंत्रण पाते ही उसके अभ्यास में जुट गए और आत्मबल से दो महीने में ही उस पर इतना अधिकार प्राप्त कर लिया कि देखनेवाले दंग हो जाते। पेरिस में आपने हिंदू-दर्शन पर दो व्याख्यान दिये, पर चूँकि यह केवल निबंध पढ़नेवालों का सम्मेलन था, और उसका उद्देश्य सत्य की खोज नहीं, किंतु पेरिस प्रदर्शनी की शोभा बढ़ाना था, इसलिए फ्रांस में स्वामीजी को सफलता न हुई।

अंत में अत्यधिक श्रम के कारण स्वामीजी का शरीर बिलकुल गिर गया। यों ही बहुत कमजोर हो रहे थे, पेरिस-सम्मेलन की तैयारी ने और भी कमजोर बना दिया। अमरीका, इंग्लैंड और फ्रांस की यात्रा करते हुए जब आप स्वदेश लौटे, तो देह में हड्डियाँ भर रह गई थीं और इतनी शक्ति न थी कि सार्वजनिक सभाओं में भाषण कर सकें। डाक्टरों की कड़ी ताकीद थी कि आप कम-से-कम दो साल तक पूर्ण विश्राम करें। पर जो हृदय अपने देशवासियों के दुःख देखकर गला जाता हो, और जिसमें उनकी भलाई की धुन समायी हो, जिसमें यह लालसा हो कि आज की धन और बल से हीन हिंदू जाति फिर पूर्वकाल की सबल, समृद्ध और आत्मशालिनी आर्य जाति बने, उससे यह कब हो सकता था कि एक क्षण के लिए भी आराम कर सके। कलकत्ते पहुँचते ही, कुछ ही दिन के बाद आप आसाम की ओर रवाना हुए और अनेक सभाओं में वेदांत का प्रचार किया। कुछ तो स्वास्थ्य पहले से ही बिगड़ा हुआ था, कुछ उधर का जलवायु भी प्रतिकूल सिद्ध हुआ। आप फिर कलकत्ते लौटे। दो महीने तक हालत बहुत नाजुक रही। फिर बिल्कुल तंदुरुस्त हो गए।

इन दिनों आप अक्सर कहा करते थे कि अब दुनिया में मेरा काम पूरा हो चुका। पर चूँकि उस काम को जारी रखने के लिए जितेंद्रिय, निःस्वार्थ और आत्मबल सम्पन्न संन्यासियों की अत्यन्त आवश्यकता थी, इसलिए अपने बहुमूल्य जीवन के शेष मास आपने अपनी शिष्य-मंडली की शिक्षा और उपदेश में लगाए। आपका कथन था कि शिक्षा का उद्देश्य पुस्तक पढ़ाना नहीं है, किंतु मनुष्य को मनुष्य बनाना है। इन दिनों आप अक्सर समाधि की अवस्था में रहा करते थे और अपने भक्तों से कहा करते थे कि अब मेरे महाप्रस्थान का समय बहुत समीप है। ४ जुलाई १९॰२ को यकायक आप समाधिस्थ हो गए। इस समय आपका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। सबेरे दो घंटे समाधि में रहे थे; दोपहर को शिष्यों को पाणिनीय व्याकरण पढ़ाया था और तीसरे पहर दो घंटे तक वेदोपदेश करते रहे। इसके बाद टहलने को निकले। शाम को लौटे तो थोड़ी देर माला जपने के बाद फिर समाधिस्थ हो गए और इसी रात को पंचभौतिक शरीर का त्याग कर परमधाम को सिधार गए। यह दुर्बल पार्थिव देह आत्म-साक्षात्कार की दिव्यानुभूति को न सह सकी।

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