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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


पहले लोगों ने इस अवस्था को समाधि मात्र समझा और एक संन्यासी ने आपके कान में परमहंसजी का नाम सुनाया; पर जब इसका कुछ असर न हुआ, तब लोगों को विश्वास हो गया कि आप ब्रह्मलीन हो गए। आपके चेहरे पर तेज था और अधखुली आँखें आत्मज्योति से प्रकाशित थीं।

इस हृदय-विदारक समाचार को सुनते ही सारे देश में कोलाहल मच गया और दूर-दूर से लोग आपके अंतिम दर्शन के लिए कलकत्ते पहुँचे। अन्त में दूसरे दिन दो बजे के समय गंगातट पर आपकी दाहक्रिया हुई। परमहंस जी की भविष्यवाणी थी कि मेरे इस शिष्य के जीवन का उद्देश्य जब पूरा हो जाएगा, तब वह भरी जवानी में इस दुनिया से चल देगा। वह अक्षरशः सत्य निकली।

स्वामीजी का रूप बड़ा सुंदर और भव्य था। शरीर सबल और सुदृढ़ था। वजन दो मन से ऊपर था। दृष्टि में बिजली का असर था और मुखमंडल पर आत्मतेज का आलोक। आपकी दयालुता की चर्चा ऊपर कर चुके हैं। कड़ी बात शायद जबान से एक बार भी न निकली हो। विश्वविख्यात और विश्ववंद्य होते हुए भी स्वाभाव अति सरल और व्यवहार अति विनम्र था। उनका पांडित्य अगाध, असीम था। अंग्रेजी के पूर्ण पंडित और अपने समय के सर्वश्रेष्ठ वक्ता थे। संस्कृत साहित्य और दर्शन के पारगामी विद्वान और जर्मन, हिब्रू, ग्रीक, फ्रेंच आदि भाषाओं पर पूर्ण अधिकार रखते थे। कठोर श्रम तो आपका स्वभाव ही था। केवल चार घंटे सोते थे। चार बजे तड़के उठकर जप-ध्यान में लग जाते। प्राकृतिक दृश्यों के बड़े प्रेमी थे। भोर में जप-तप से निवृत होकर मैदान में निकल जाते और प्रकृति- सुषमा का आनन्द लेते। पालतू पशुओं को प्यार करते और उनके साथ खेलते। अपने गुरुदेव की अंत समय तक पूजा करते रहे। स्वर में बड़ा माधुर्य और प्रभाव था।

श्रीरामकृष्ण परमहंस कभी-कभी आपसे भजन गाने की फरमाइश किया करते थे और उससे इतने प्रभावित होते कि आत्मविस्मृत-से हो जाते। मीराबाई और तानसेन के प्रेमभरे गीत आपको बहुत प्रिय थे। वाणी में वह प्रभाव था कि वक्तृताएँ श्रोताओं के हृदयों पर पत्थर की लकीर बन जातीं। कहने का ढंग और भाषा बहुत सरल होती थी; पर उन सीधे-सादे शब्दों में कुछ ऐसा आध्यात्मिक भाव भरा होता था कि सुनने वाले तल्लीन हो जाते थे। आप सच्चे देशभक्त थे, राष्ट्र पर अपने को उत्सर्ग कर देने की बात आपसे अधिक शायद ही और किसी के लिए यही सही हो सकती हो। देशभक्ति का ही उत्साह आपको अमरीका ले गया था। अपने विपद्ग्रस्त राष्ट्र और अपने प्राचीन साहित्य तथा दर्शन का गौरव दूसरे राष्ट्रों की दृष्टि में स्थापित करना, ब्रह्मचारियों को शिक्षा देना, अपने पीड़ित देशवासियों के लिए जगह-जगह खैरातखाने खुलवाना–यह सब आपके सच्चे देशप्रेम के स्मारक हैं। आप केवल महर्षि ही न थे, ऐसे देशभक्त भी थे, जिसने देश पर अपने आपको मिटा दिया हो। एक भाषण में फरमाते हैं–

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