कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह) कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है
‘मेरे नौजवान दोस्तो! बलवान बनो। तुम्हारे लिए मेरी यही सलाह है! तुम भगवद्गीता के स्वाध्याय की अपेक्षा फुटबाल खेलकर कहीं अधिक सुगमता से मुक्ति प्राप्त कर सकते हो। जब तुम्हारी रगें और पुट्ठे अधिक दृढ़ होंगे, तो तुम भगवद्गीता के उपदेशों पर अधिक अच्छी तरह चल सकते हो। गीता का उपदेश कायरों को नहीं दिया गया था; किंतु अर्जुन को दिया गया था, जो बड़ा शूरवीर, पराक्रमी और क्षत्रिय-शिरोमणि था। कृष्ण भगवान् के उपदेश और अलौकिक शक्ति को तुम सभी समझ सकोगे, जब तुम्हारी रगों में खून कुछ और तेजी से दौड़ेगा।’
एक दूसरे व्याख्यान में उपदेश देते हैं–
‘यह समय आनंद में भी आँसू बहाने का नहीं। हम रो तो बहुत चुके। अब हमारे लिए नरक बनाने की आवश्यकता नहीं। इस कोमलता ने हमें इस हद तक पहुँचा दिया है कि हम रुई का गोला बन गए हैं। अब हमारे देश और जाति को जिन चीज़ों की जरूरत होती है, वह है–लोहे के हाथ-पैर और फ़ौलाद के सारे पुट्ठे और वह दृढ़ संकल्प शक्ति जिसे दुनिया की कोई वस्तु रोक नहीं सकती; जो प्रकृति में रहस्यों की हद तक पहुँच जाती है और अपने लक्ष्य से कभी विमुख नहीं होती, चाहे उसे समुद्र की तह में जाना या मृत्यु का सामना क्यों न करना पड़े। महत्ता का मूल मंत्र विश्वास है–दृढ़ और अटल विश्वास, अपने आप और सर्व शक्तिमान जगदीश्वर पर विश्वास।’ स्वामीजी को अपने ऊपर जबरदस्त विश्वास था। स्वयं उन्हीं का कथन है–
‘गुरुदेव के गले में एक फोड़ा निकल आया था। धीरे-धीरे उसने इतना उग्र रूप धारण कर लिया कि कलकत्ते के सुप्रसिद्ध डाक्टर बाबू महेंद्रलाल सरकार बुलाए गए। उन्होंने परमहंसजी की हालत देखकर निराशा जतायी और चलते समय शिष्यों से कहा कि यह रोग संक्रामक है, इसलिए इससे बचते रहो और गुरुजी के पास बहुत देर तक न ठहरा करो। यह सुनकर शिष्यों के होश उड़ गए और आपस में कानाफूसी होने लगी। मैं उस समय कहीं गया हुआ था। लौटा तो अपने गुरुभाइयों को अति भयभीत पाया। कारण मालूम होते ही मैं सीधे अपने गुरुदेव के कमरे में चला गया। वह प्याली, जिसमें उनके गले से निकला हुआ मवाद रखा हुआ था, उठा ली, और सब शिष्यों के सामने बड़े इतमीनान से पी गया और बोला, देखो, मृत्यु क्योंकर मेरे पास आती है?’
स्वामीजी सामाजिक सुधारों के पक्के समर्थक थे, पर उसकी वर्तमान गति से सहमत न थे। उस समय समाज-सुधार के जो यत्न किए जाते थे, वह प्रायः उच्च और शिक्षित वर्ग से ही संबंध रखते थे। परदे की रस्म, विधवा-विवाह, जाति-बंधन–यही इस समय की सबसे बड़ी सामाजिक समस्याएँ हैं, जिनमें सुधार होना अत्यावश्यक है, और सभी शिक्षित वर्ग से सम्बन्ध रखती हैं। स्वामीजी का आदर्श बहुत ऊँचा था–अर्थात् निम्न श्रेणीवालों को ऊपर उठाना, उन्हें शिक्षा देना और अपनाना। यह लोग हिंदू जाति की जड़ हैं और शिक्षित-वर्ग उसकी शाखाएँ! केवल डालियों को खींचने से पेड़ पुष्ट नहीं हो सकता। उसे हरा-भरा बनाना हो, तो जड़ को सींचना होगा। इसके सिवा इस विषय में आप कठोर शब्दों के व्यवहार को अति अनुचित समझते थे, जिनका फल केवल यही होता है कि जिनका सुधार करना है, वही लोग चिढ़कर ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार हो जाते हैं, और सुधार का मतलब केवल यही रह जाता है कि निरर्थक विवादों और दिल दुखानेवाली आलोचनाओं से पन्ने-के-पन्ने काले किए जायँ। इसी से तो समाज-सुधार का यत्न आरंभ हुए सौ साल से ऊपर हो चुका और अभी तक कोई नतीजा न निकला।
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