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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


स्वामीजी की शिक्षा-योजना बहुत विस्तृत थी। एक हिंदू विश्वविद्यालय स्थापित करने का भी आपका विचार था, पर अनेक बाधाओं के कारण आप उसे कार्यान्वित न कर सके। हाँ, उसका सूत्रपात अवश्य कर गए।

धर्मगत रागद्वेष का तो आपके स्वाभाव में कहीं लेश भी न था। दूसरे धर्मों की निन्दा और अपमान को बहुत अनुचित मानते थे। ईसाई धर्म, इसलाम, बौद्ध धर्म सबको समान दृष्टि से देखते थे। एक भाषण में हज़रत व ईसा को ईश्वर का अवतार माना था। अपने देशवासियों को सदा इस बात की याद दिलाते रहते थे कि आत्मविश्वास ही महत्त्व का मूलमंत्र है। हमें अपने ऊपर बिल्कुल भरोसा नहीं। अपने को छोटा और नीचा समझते हैं, इसी कारण दीन-हीन बने हुए हैं। हर अंग्रेज समझता है कि मैं शूरवीर हूँ, साहसी हूँ और जो चाहूँ, कर सकता हूँ। हम हिंदुस्तानी अपनी असमर्थता के इस हद तक कायल हैं कि मर्दानगी का ख्याल भी हमारे दिलों में नहीं पैदा होता है। जब कोई कहता है कि तुम्हारे पुरखे निर्बुद्धि थे, वह ग़लत रास्ते पर चले और इसी कारण तुम इस अवस्था को पहुँचे, तो हमको जितनी लज्जा होती है, उसका अनुमान भी  नहीं किया जा सकता, और हमारी हिम्मत और भी टूट जाती है।

स्वामीजी इस तत्त्व को खूब समझते थे और किसी दूषित प्रथा के लिए अपने पूर्व-पुरुषों को कभी दोष नहीं देते थे। कहते थे कि हरएक प्रथा अपने समय में उपयोगी थी और आज उसकी निंदा करना निरर्थक है। आज हम इस बात पर जोर दे रहे हैं कि साधु-समुदाय के अस्तित्व से हमारे देश को कोई लाभ नहीं, और हमारी दान-धारा को उधर से हटकर शिक्षा-संस्थाओं और समाज-सुधार के कार्यों की ओर बहना चाहिए। स्वामीजी इसे स्वार्थपरता मानते थे। और है भी ऐसा ही। साधु कितना ही अपढ़ हो, अपने धर्म और शास्त्रों से कितना ही अनभिज्ञ हो, फिर भी हमारे अशिक्षित देहाती भाइयों की ज्ञान-पिपासा की तृप्ति और मनःसमाधान के लिए उसके पास काफी विद्या-ज्ञान होता है। उसकी मोटी-मोटी धर्म-सम्बन्धी बातें कितने ही दिलों में जगह पातीं और कितनों के लिए कल्याण का साधन बनती हैं। अब अगर इनकी आवश्यकता नहीं समझी जाती, तो कोई ऐसा उपाय सोचना चाहिए, जिसमें उसका काम जारी रहे। पर हम इस दिशा में तो तनिक भी नहीं सोचते और जो रहा-सहा साधन है, उसे भी तोड़-फोड़कर बराबर करना चाहते हैं।

सारांश, स्वामीजी अपनी जाति को आचार-व्यवहार, रीति-नीति, साहित्य और दर्शन, सामाजिक जीवन, उसके पूर्वकाल के महापुरुष और पुनीत भारत भूमि सबको श्रद्धेय और सम्मान्य मानते थे। आपके एक भाषण का निम्नलिखित अंश सोने के अक्षरों में लिखा जाने योग्य है–

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