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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


मानसिंह ने आगरे पहुँचकर अकबर को सारी कथा सुना दी। अकबर ऊँची हिम्मत का बादशाह था, क्रोध में आ गया। राणा पर चढ़ाई की तैयारी की। शाहज़ादा सलीम सेनापति बनाए गए और मानसिंह उनका मंत्री नियुक्त हुआ। शाही फ़ौज जंगलों-पहाड़ों को पार करती राणा के राज्य में प्रविष्ट हुई। राणा, उस पर मर मिटने को तैयार २२ हजार राजपूतों के साथ, हल्दीघाटी के मैदान में अड़ा खड़ा था। यहाँ खूब घमासान लड़ाई हुई, रक्त की नदियाँ बह गईं। पहाड़ों के पत्थर सिंगरफ बन गए। मेवाड़ के वीर मानसिंह के खून के प्यासे हो रहे थे। ऐसे जान तोड़-तोड़कर हमले करते थे कि अगर सद्दे सिकंदर*भी होती, तो शायद अपनी जगह पर क़ायम न रह सकती। मगर मानसिंह भी शेर का दिल रखता था। उस पर जवानी का जोश। हौसला कहता था कि सारी सेना की निगाहें तुम पर हैं, दिखा दे कि राजपूत अपनी तलवार का ऐसा धनी होता है। अंत को अकबरी प्रताप की विजय हुई। राणा के साथियों के पाँव उखड़ गए। चौदह हज़ार खेत रहे। केवल आठ हज़ार अपनी जानें सलामत ले गए। कहाँ हैं स्पार्टा की सराहना में पन्ने के पन्ने काले करनेवाले! आयें और देखें कि भारत के योद्धा कैसी निर्भयता के साथ जान देते हैं।

राणा लड़ाई तो हार गया, पर हिम्मत न हारा। उसकी हेकड़ी उसके गले का हार बनी रही। जब कभी मैदान खाली पाता, मौत से खेलनेवाले अपने साथियों को लेकर किले से निकल पड़ता और आसपास में आफ़त मचा देता। अकबर ने कुछ दिनों तक तरह दी, पर जब राणा की ज्यादतियाँ हद से आगे निकल गईं, तो सन् १४७६ में उस पर फिर से चढ़ाई की तैयारी की। खुद तो अजमेर में आकर ठहरा और मानसिंह को पुत्र की पदवी के साथ इस चढ़ाई का सेनापत्तिव दिया। राजा हवा के घोड़े पर सवार होकर दम में गोगंडा जा पहुँचे, जहाँ राणा अपने दिन काट रहा था।

राणा ने भी अबकी मरने-मारने की ठान ली। ज्यों ही दोनों सेनाएँ आमने-सामने हुईं और डंके पर चोट पड़ी, दस्त-बदस्त लड़ाई होने लगी। राणा के आन-भरे राजपूत ऐसी बेजिगरी से झपटे कि शाही फ़ौज के दोनों बाजुओं को छिन्न-भिन्न कर दिया। पर मानसिंह जो सेना के मध्य भाग में था, अपने स्थान पर अटल रहा। अचानक उसके तेवर बदले, शेर की तरह गरजा, अपने साथियों को ललकारा और बिजली की तरह राणा की सेना पर टूट पड़ा। राणा क्रोध में भरा ताल ठोककर सामने आया और दोनों रणबाँकुरे गुथ गए। ऊपरतले कई बार हुए और राणा घायल होकर पीछे हटा। उसके हटते ही उसकी सेना में खलबली पड़ गई। उसके पाँव उखड़े थे कि मानसिंह की प्रलयंकारी तलवार ने हज़ारों को धराशायी बना दिया। उनकी बहादुरी ने वह करतब दिखाए कि अच्छे-अच्छे प्रौढ़ मुगल योद्धा, जो बाबरी तलवार की काट देखे हुए थे, दाँतों तले उँगली दबाकर रह गए।

इस विजय ने कुँवर मानसिंह के सेनापतित्व की धूम मचा दी और सन् १५८१ ई० में उसकी तलवार ने वह तड़प दिखायी कि ‘हिंदी लोहे ने विलायती के जौहर मिटा दिए।’ बंगाल में कुछ सरदारों ने सिर उठाया और अकबर के सौतेले भाई मिर्ज़ा हकीम को (काबुल से) चढ़ा लाने की युक्ति लड़ाना शुरू किया। मिर्ज़ा खुशी से फूला न समाया। अपनी सेना लेकर पंजाब की ओर बढ़ा। इधर से राणा मानसिंह सेनापति बनकर उसके मुकाबले को रवाना हुआ। मिर्ज़ा का दूधभाई शादमान, जो बड़ा वीर और साहसी पुरुष था, अटक का घेरा डाले हुए पड़ा था। नगाड़े की घन-गरज ध्वनि कान में पड़ी, तो चौंका। पर अब क्या हो सकता था, मानसिंह सिर पर आ पहुँचा था। उसकी सेना पलक मारते तितर-बितर हो गई और शादमान धूलि में लोटता हुआ दिखाई दिया।

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