लोगों की राय

कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

158 पाठक हैं

स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है



राजा मानसिंह

‘दरबारे-अकबरी’ के रचयिता ने, जिसकी क़लम में जादू था, क्या खूब कहा है–‘इस उच्च-कुल संभूत राजा का चित्र दरबारे-अकबरी के चित्र-संग्रह में सोने के पानी से खींचा जाना चाहिए।’ निस्संदेह! और न केवल मानसिंह का, किंतु उसके कीर्तिशाली पिता राजा भगवानदास और सुविख्यात दादा राजा भारामल के चित्र भी इसी सम्मान और श्रृंगार के अधिकारी हैं। राजा भारामल वह पहला बुद्धिमान और दूर तक देखने-सोचनेवाला राजा था, जिसने हजारों साल के धार्मिक संस्कारों को देश के सामयिक हित पर बलिदान करके मुसलमानों से नाता जोड़ा और सन् ९६९ हिज्र में अपनी रूप-गुण-शीला कन्या को अकबर की पटरानी बनाया। आमेर के कछवाहा वंश को विचार-स्वातंत्र्य और धर्मगत उदारता के क्षेत्र में अगुआ बनने का गौरव प्राप्त है। और जब तक जमाने की निगाहों में इन पुनीत गुणों का आदर रहेगा, इस घराने के नाम पर सम्मान की श्रद्धांजलि अर्पित की जाती रहेगी।

मानसिंह आमेर में पैदा हुआ और उसका बचपन उसी देश के जोशीले, युद्धप्रिय निवासियों में बीता, जिनसे उसने वीरता और साहस के पाठ पढ़े। पर जब जवानी ने हृदय में उत्साह और उत्साह ने उमंग पैदा की, तो अकबर के दरबार की तरफ़ रुख किया, जो उस जमाने में मान-प्रतिष्ठा, पद और अधिकार की खान समझा जाता था। भगवानदास की सच्ची शुभचिंतना और उत्सर्गमयी सहायताओं ने शाही दरबार में उसे मान-प्रतिष्ठा के आसन पर आसीन कर रखा था। उसके होनहार तेजस्वी बेटे की जितनी आवभगत होनी चाहिए थी, उससे अधिक हुई। अकबर ने उसके साथ पितृ-सुलभ स्नेह दिखाया और सन् १५७२ ई० में जब गुजरात पर चढ़ाई की, तो नवयुवक राजकुमार को हमराही का सम्मान प्रदान किया। इस मुहिम में उसने वह बढ़-बढ़कर हाथ मारे कि अकबर की नजरों में जँच गया। अगर कुछ कोरकसर थी तो वह उस वक्त पूरी हो गई, जब खान आजम अहमदाबाद में घिर गया और अकबर ने आगरे से कूचे करके दो महीने की राह ७ दिन में तै की। नौजवान राजकुमार इस धावे में भी साथ रहा। यह मानो उसकी शिक्षा और परीक्षा के दिन थे।
 
अब वह समय आया कि बड़े-बड़े विश्वास और दायित्व के काम उसे सौंपे जायँ। दैवयोग से इसका अवसर भी जल्दी ही हाथ आया। वह शोलापुर की मुहिम मारे चला आ रहा था कि रास्ते में कुंभलमेर स्थान में महाराणा प्रताप से भेंट हुई। राणा कछवाहा कुल पर उसके विचार-स्वातंत्र्य के कारण तना बैठा था कि उसने राजपूतों के माथे पर कंलक का टीका लगाया। मानसिंह पर चुभते हुए व्यंग्यबाण छोड़े, जो उसके कलेजे के पास हो गए। इस घाव के लिए बदला लेने के सिवाय और कोई कारगर मरहम न दिखाई दिया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book