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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


प्रत्येक अवसर पर आपने ऐसे ही ज़ोरदार भाषण किए। कटु, अप्रिय सत्य कहने में आपको कभी आगा-पीछा नहीं होता था। और इंग्लैण्ड वासियों की उदारता को भी धन्य है कि अपनी ही जाति के अन्याय-अत्याचार की कहानी सुनने के लिए हज़ारों की संख्या में जमा होते थे। अतः इन नग्न सत्यों से उनके राष्ट्रीय अभिमान को चोट लगती थी, फिर भी विभिन्न सभा-समितियों से आपके पास भारत के विषय में कुछ कहने के लिए इतने निमन्त्रण आते थे कि कठोर परिश्रम के आदी होने पर भी सबको स्वीकार न कर सकते थे। भाषण के बीच में श्रोतृसमूह ऐसे उत्साह से साधुवाद देता था और आदि से अन्त तक ऐसी सहानुभूति का परिचय देता था कि आपको स्वीकार करना पड़ता था कि अँग्रेज़ों की न्यायवृत्ति अभी तक कुण्ठित नहीं हुई है। डेढ़ महीने के अल्पकाल में आपने सारे इंग्लैंड का दौरा किया और कितने ही भाषण किए; पर जिस जाति ने मुद्दतों से हिन्दुस्तान को अपनी मिलकियत समझ रखा हो, उस पर ऐसे भाषणों का क्या टिकाऊ असर पड़ सकता था ? सम्मानित और सदाशय अँगरेज़ सज्जनों ने सहानुभूति प्रकट की और बस, शासन-यंत्र उसी पुराने ढर्रे पर चलता रहा।

मातृभूमि! वह लोग अन्याय करते हैं, जो कहते हैं कि हिन्दू जाति मृत, निष्प्राण हो गई है। जब तक दादाभाई, रानडे, और गोखले जैसे बच्चे तेरी गोद में खेलेंगे, हिन्दू जाति कभी मुर्दा नहीं कही जा सकती। कौन कह सकता है कि अगर इन महापुरुषों का जन्म किसी स्वाधीन देश में हुआ होता, तो वह ग्लेडस्टन बिस्मार्क या रूजवेल्ट न होते!

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