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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ



मौ. वहीदुद्दीन ‘सलीम’

वहीदुद्दीन नाम ‘सलीम’ उपनाम, पिता का नाम हाजी फ़रीदुद्दीन साहब, पानीपत, ज़िला करनाल (पंजाब) के प्रतिष्ठित सैयद कुल के थे। उनके दादा मुलतान से स्थानान्तर कर पहले पाक पहन पहुँचे, जहाँ हाजी फ़रीदुद्दीन साहब का जन्म हुआ, फिर पानीपत आये और इसी क़सबे को वासस्थान बनाया। हाजी साहब पानीपत के सुप्रसिद्ध महात्मा हज़रत बू अली शाह क़लन्दर के मज़ार के मुतवल्ली (प्रबन्धक) थे। बहुत पूजा-पाठ करने वाले और यंत्र-मंत्र में प्रसिद्ध थे।

बिहार के स्थावान क़सबे के पूजनीय सन्त मौलाना सैयद गौस अलीशाह लंबे पर्यटन के बाद जब पानीपत पधारे, तो हाजी साहब ने आग्रह करके उनको क़लन्दर साहब के हाते में ठहराया और १८ बरस तक उनकी सेवा की। मौलाना हाजी साहब पर बहुत कृपा रखते थे। आप और आपके मेहमानों के लिए दोनों वक्त हाजी साहब के घर से खाना आता था। हाजी साहब के यहाँ साधारणतः लड़कियाँ होती थीं, पुत्र-सुख से वह वंचित थे। हजरत की दुआ से उनको दो पुत्र प्राप्त हुए। बड़े बेटे का नाम वहीदुद्दीन और छोटे का नाम हमीदुद्दीन रखा गया। यही बड़े बेटे हमारी इस चर्चा के विषय मौलाना सलीम साहब हैं।

क़सबे की एक शरीफ़ उस्तानी ने जो आपा शम्मून्निसा के नाम से प्रसिद्धि थी, मौलाना को कुरान शरीफ़ कंठ कराया। इसके बाद खुद मौलाना हज़रत गौस अली ने उनको सरकारी स्कूल में भरती कराया। हाजी साहब की परलोक यात्रा के बाद उनकी पढ़ायी-लिखायी की निगरानी खुद हज़रत ही ने की। मौलाना को लड़कपन से ही फ़ारसी का शौक था। अपनी निज की कोशिश से फ़ारसी की किताबें पढ़ने और टीकाओं की सहायता से उनको समझने का यत्न करते रहे।

जब गुलिस्ताँ का तीसरा अध्याय पढ़ते थे और उनकी अवस्था कुल १४ साल की थी, हज़रत मौलाना की स्तुति में फ़ारसी में एक क़सीदा लिखा, जिसमें १०१ शेर हैं और सुप्रसिद्ध कवि उर्फी के एक क़सीदे के जवाब में ऊँचे स्वर से यह क़सीदा पढ़कर सुनाया, जिसे सुनकर श्रोतृमण्डली विस्मय विमुग्ध हो गई कि इस उम्र और इस योग्यता का बच्चा ऐसा क्लिष्ट भावों को क्योंकर बाँध सका। वस्तुतः यह हज़रत मौलाना का ही प्रसाद था और ‘तज़किरए ग़ौसिया’ में यह क़सीदा उनकी करामात के दृष्टान्त रूप में छापा गया है। इस रचना के पुरस्काररूप में हज़रत ने एक जयपुरी अशरफी और एक जरी के काम की बनारसी चादर मौलाना को प्रदान की थी।

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