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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


आजकल तो धार्मिक वादविवादों का जोर कुछ कम हो गया है; पर उस जमाने में ईसाई पादरी, ईसाई मत के प्रचार के जोश में हिन्दू और मुसलमान मज़हबों पर खुलेआम आक्षेप किया करते थे और चूँकि उस समय आलिमों और पंडितों में यह योग्यता न थी कि वह शास्त्र-वचनों और धार्मिक परम्पराओं की युक्तिसंगत व्याख्या कर सकें और शब्दों के परदे में छिपे हुए अर्थ को स्पष्ट कर सकें, इस कारण ईसाई प्रचारकों के सामने वह निरुत्तर हो जाते थे और इसका जनसाधारण पर बहुत बुरा असर पड़ता था। सैयद अहमद खाँ ने पादरियों के इस हमले से इसलाम को बचाने के लिए यह आवश्यक समझा कि उनके आक्षेपों का मुँहतोड़ जवाब दिया जाए और कुरान और बाइबिल की तुलना करके दिखाया जाए कि दोनों धर्म-ग्रंथों में कितनी समानता है। इसी उद्देश्य से उन्होंने बाइबिल की टीका, लिखना आरम्भ किया, पर वह पूरी न हो सकी। परन्तु नौकरी से पेंशन लेने के बाद जब उन्हें अवकाश और इतमीनान प्राप्त हुआ, तो उन्होंने इस विचार को अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘तफ़सीरुल कुरान’ के द्वारा पूरा किया। इसलाम के सिद्धान्तों और शिक्षाओं पर दार्शनिक दृष्टि से किए जानेवाले आक्षेपों का बड़ी खोज और विवेचना के साथ जवाब दिया।

हिन्दू मुसलमान दोनों ही अशिक्षा और अज्ञान के कारण शास्त्र-वचनों और धर्म के साधारण विधि-निषेधों को आँख मूँदकर मानते थे। उन वचनों की युक्ति संगत व्याख्या तो वह क्या करते, उनके मन में कोई शंका ही न उठती थी, क्योंकि शंका तो शिक्षा और जिज्ञासा का सुफल है। वह लोग अपने पुरखों के पदानुसरण करने में ही सन्तुष्ट थे। धर्म एक रूढ़ि मात्र बन गया था, मानो प्राण निकल गया हो, देह पड़ी हो। इसी कारण हिन्दू मुसलमानों की आस्था अपने धर्म से हटने लगी थी। अँगरेजी शिक्षा के आरम्भिक युग में कितने ही शिक्षित हिन्दू ईसाई हो गए। अन्त को राजा राममोहन राय को एक ऐसे सम्प्रदाय की स्थापना आवश्यक जान पड़ी, जो पूर्णतया दार्शनिक सिद्धान्तों पर प्रतिष्ठित हो, और उसमें वह सब सुविधाएँ और स्वाधीनताएँ प्राप्त हों, जो लोगों को ईसाई धर्म की ओर आकृष्ट किया करती थीं और इसी नए सम्प्रदाय का नाम ब्रह्म समाज रखा गया। इस सम्प्रदाय से जातपाँत, छूतछात, मूर्तिपूजा, तीर्थस्नान, श्रद्धा और वह सब विधि-विधान निकाल दिये गए, जिन पर ईसाइयों के आक्षेप हुआ करते थे। यहाँ तक कि उपासना विधि बदल दी गई। इसमें संदेह नहीं कि इस सम्प्रदाय ने हिन्दुओं में ईसाइत की बाढ़ को बहुत कुछ रोक दिया।

इसके बहुत दिन बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की नींव डाली, जिसने पश्चिमी भारत में वहीं काम किया, जो पूर्व में ब्रह्म समाज ने किया था। ‘तफ़सीरुल कुरान’ भी इसी उद्देश्य से लिखी गई कि नवयुवक मुसलमानों के मन में अपने धर्म के विषय में जो शंकाएँ उठें, उनका समाधान कर दिया जाए। पर मुसलमान इस पुस्तक के प्रकाशित होते ही सैयद अहमद खाँ पर कुफ्र का फ़तवा लेकर दौड़े। उन पर नास्तिक, अनेकेश्वरवादी और प्रकृति पूजक होने का दोष लगाया। देश में एक सिरे से दूसरे सिरे तक आग लग गई और जवाबी किताबों का सिलसिला शुरू हुआ। लेखक पर तरह-तरह के अनुचित असंगत आरोप किए जाने लगे। कोई-कोई तो यह भी सोचने लगे कि सैयद अहमद खाँ विलायत जाकर ईसाई हो आये हैं और इसलाम को नष्ट करने के उद्देश्य से यह पुस्तक लिखी है। बहुत दिनों के बाद यह कोलाहल शांत हुआ और आज ‘तफ़सीरुल कुरान’ तत्व-जिज्ञासुओं के लिए पथप्रदीप का काम कर रही है।

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