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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


सैयद अहमद खाँ के जीवन का सबसे बड़ा कार्य मदरसतुल उलूम अलीगढ़ कालेज है, जो अब मुसलिम विश्वविद्यालय का रूप प्राप्त कर उनका अमर स्मारक बन रहा है। मुसलमानों में निर्धनता और बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही थी और इस बाढ़ को रोकने के लिए उनमें पाश्चात्य शिक्षा का प्रचार होना अत्यावश्यक था। मदरसतुल उलूम ने इस अभाव की बहुत अच्छी तरह पूर्ति कर दी। पर उस समय लोग पश्चिम की शिक्षा-दीक्षा से ऐसे भड़क रहे थे कि उन्हें डर था कि कहीं हमारा धर्म भी हमारे हाथ से न चला जाए और फिर हम कहीं के न रहें। पर सर सैयद अपने संकल्प में दृढ़ थे। उन्होंने इस विचार से इंग्लैण्ड की यात्रा की कि वहाँ के प्राचीन विश्वविद्यालयों के संगठन और व्यवस्था का अध्ययन करें और उसी नमूने पर हिन्दुस्तान में अपने कालेज की स्थापना करें। १ अप्रैल सन् १८६९ ई० को वह विलायत के लिए रवाना हो गए। लंदन में जिस ठाट से उनका स्वागत किया गया और जितनी आवभगत हुई, उसने उन्हें सदा के लिए अँगरेज़ों के साथ प्रेमबंधन में बाँध दिया। करीब दो साल तक वहाँ के कालेजों के प्रबन्ध का बारीकी से अध्ययन करने के बाद वह भारत लौटे और ‘मदरसतुल उलूम’ के उद्घाटन की तैयारी करने लगे।

इस उद्देश्य की सिद्धि और मुसलमानों में साहित्य और विद्या की सम्यक् रुचि उत्पन्न करने के विचार से उन्होंने ‘तहज़ीबुल अख़लाक़’ नामक मासिक पत्र निकाला। पर आलिमों की मंडली ने इस पत्र का विरोध आरम्भ किया और मुसलमान जनता को कालेज के उद्योग की ओर से भड़काने लगे। शायद कुछ लोगों ने सोचा हो कि इंग्लैण्ड से अपना धर्म खोकर आये हैं; पर सर सैयद ने हिम्मत न हारी और लगातार ५ साल के अथक उद्योग से १८७५ ई० में अलीगढ़ में मदरसतुल उलूम का उद्घाटन हुआ। इसमें संदेह नहीं कि इस संस्था की स्थापना से मुसलमानों का जितना अभ्युदय हुआ, और किसी तरह उतना न हो सकता था। आज मुसलिम विश्वविद्यालय मुसलमानों का जातीय स्मारक है और उसके विद्यार्थी हिन्दुस्तान के कोने-कोने में उसका झण्डा लिये घूम रहे हैं।

सैयद अहमद खाँ का खयाल हिन्दुओं की ओर से महज़ इस बात पर खराब हो गया कि १८६७ ई० में संयुक्त प्रान्त में हिन्दुओं की ओर से यह कोशिश हुई की नागरी इस सूबे की अदालती भाषा बना दी जाए। सैयद अहमद खाँ ने इसे हिन्दुओं की ज्यादती समझा, यद्यपि यह उद्योग केवल जन साधारण के सुभीते की दृष्टि से आरम्भ किया गया था। स्पष्ट है कि जिस सूबे में हिन्दुओं की आबादी ८० प्रतिशत से भी अधिक हो और उसमें अधिकतर लोग देहात के रहनेवाले, उर्दू से अपरिचित हों, वहाँ उर्दू का अदालती भाषा होना खुला अन्याय है। मुट्ठी भर उर्दूदां लोगों के लाभ या सुभीते के लिए जनता के बहुत बड़े भाग को असुविधा और खर्च उठाने को बाध्य करना किसी प्रकार उचित नहीं; और इस आंदोलन का यह उद्देश्य न था कि उर्दू एक बारगी मिटा दी जाए। पर सर सैयद के मन में यह शंका बस गई कि हिन्दू मुसलमानों को नीचा दिखाना चाहते हैं। सम्भव है, कुछ और भी कारण उपस्थित हो गए हों, जिनसे इस धारणा की पुष्टि हुई हो कि हिन्दू मुसलमान का मेल और एक अनहोनी बात है। दोनों जातियों में ऐतिहासिक और धर्मगत बिलगाव पहले से ही मौजूद थे। मुग़ल साम्राज्य की समाप्ति और अँगरेज़ी राज्य की स्थापना ने इन विरोधों को मिटाना और पुराने घावों को भरना आरम्भ ही किया था कि यह नए झगड़े उठ खड़े हुए और संयुक्त राष्ट्रीयता का लक्ष्य सुदीर्घकाल के लिए हमारी आँखों से ओझल हो गया।

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