कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह) कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)प्रेमचन्द
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महापुरुषों की जीवनियाँ
‘दिलगुदाज़’ अभी पूरे दो बरस भी न निकलने पाया था कि नवाब बक़ारुलमुल्क ने मौलाना को बुलाकर अपने लड़कों के साथ इंग्लैण्ड भेज दिया। डेढ़ बरस के बाद मौलाना इस यात्रा से लौटे, तो कुछ ही दिनों के बाद नवाब बक़ारुलमुल्क पदच्युत हो गए और महाराज किशुनप्रसाद वजीर हुए। लाचार मौलाना फिर लखनऊ लौट आये और ‘दिलगुदाज़’ फिर जारी हुआ। इसके सिवा भी मौलाना ने कुछ उपन्यास लिखकर ‘पयामेयार’ के सम्पादक को उचित पुरस्कार लेकर दिये।
लोग कहते हैं कि आरम्भ में मौलाना ने अनेक पत्रों में पारिश्रमिक लेकर काम किया और एक दैनिक पत्र में जो अनवार मुहम्मदी प्रेस से मुंशी मुहम्मद तेग़बहादुर के प्रबन्धन से निकलता था, कई लेख लिखे। ‘सहीफ़एनामी’ नामक पत्र में भी, जो नामी प्रेस लखनऊ से निकलता था, कुछ काम किया।
पहली स्त्री से मौलाना के दो लड़के और दो लड़कियाँ थीं। बड़े लड़के मुहम्मद सिद्दकी हसन की पढ़ाई एंट्रेंस तक हुई। छोटे लड़के मुहम्मद फारूक उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे और मैलाना के दफ्तर का काम अच्छी तरह सँभाल लिया था, पर १८ बरस की उम्र में बीमार होकर चल बसे। इसका मौलाना के हृदय पर कुछ ऐसा आघात पहुँचा कि बहुत दिनों तक काम बन्द रहा। इसके बाद एक लड़की की भी मृत्यु हो गई।
५० वर्ष की अवस्था में मौलाना ने दूसरा ब्याह किया, जिसके बाद वे फिर हैदराबाद गये और वहाँ शिक्षा-विभाग के उपाध्यक्ष नियुक्त हुए। वहीं से ‘दिलगुदाज़’ निकालने लगे और ‘तारीखेसिंध’ लिखी, जिस पर निज़ाम की सरकार से पाँच हज़ार रुपया इनाम मिला। कुछ दिन बाद हैदराबाद से संबंध विच्छेद कर लौट आये और ‘हमदर्द’ के दफ्तर में अच्छी तनख्वाह पर नौकरी करके देहली तशरीफ़ ले गये, पर वहाँ का समाज इन्हें न रुचा और साल भर के अन्दर ही वहाँ से चले आये। हैदराबाद से फिर बुलावा आया। १०० रु० माहवार तो वहाँ से पेंशन मिलती थी। ४०० रु० मासिक पर इसलाम का इतिहास लिखने पर नियुक्त हुए। मगर इस बार मौलाना हैदराबाद में न टिके, निज़ाम की इजाज़त लेकर लखनऊ लौट आये और पाँच बरस तक इस काम में लगे रहे। निज़ाम सरकार ने इस इतिहास को बहुत पसन्द किया। इस बीच ‘दिल गुदाज़’ ने बड़ी उन्नति की और हर साल एक नया उपन्यास पाठकों को मुफ्त मिलने लगा।
दूसरे महल में मौलाना के दो लड़के और लड़कियाँ हैं; जिनमें सबसे छोटी एक लड़की है। मौलाना जिस समय हैदराबाद में शिक्षा-विभाग के उपाध्यक्ष थे, वहाँ एक उपन्यास परदे की बुराइयों पर लिखा था। फिर लखनऊ में आकर ‘परदए असमतन’ निकाला, जिसके संपादक हसनशाह थे। इस बीच एक अप्रिय विवाद भी छिड़ गया। स्वर्गवासी पंडित व्रज नारायण चकबस्त ने मसनवी ‘गुलज़ारे नसीम’ का एक नया संस्करण निकाला। उसकी प्रस्तावना में ‘नसीम’ की बड़ाई और दूसरे कवियों की निन्दा का पहलू निकलता था। मौलाना ने उसकी समालोचना की और इसी सिलसिले में मसनवी के कुछ दोषों की भी चर्चा की। इसका जवाब ‘अवध पंच’ ने अपने खास ढंग में दिया, जिसके बाद मौलाना ने ‘ज़रीफ़’ नाम का पत्र निकाला और ‘पंच’ के रंग में ही प्रत्युत्तर लिखा। ‘ज़रीफ़’ के संपादक मुंशी निसार हुसैन थे। यह बहस आठ महीने तक जारी रही। दोनों पक्ष से बड़ा खंडन-मंडन होता रहा। फिर मौलाना ने ‘अल्इरफ़न’ नाम का मासिक पत्र निकाला, जिसके संपादक हकीम सिराजुल हक़ थे। इसमें भी सब लेख मौलाना के ही होते थे, पर यह रिसाला बहुत ही कम दिन जिया।
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