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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


‘‘अवध अखबार’’ में ‘शरर’ के लेखों ने एक हलचल डाल दी। लोग उन्हें बड़े चाव से पढ़ते थे। इस नौकरी के सिलसिले में कई बार हैदराबाद जाने का संयोग हुआ और नवाब वक़ारुल उमरा तक पहुँच हो गई। मौलाना के पिता भी उस समय हैदराबाद में ही नौकर थे और बुढ़ौती में पेंशन ले ली थी। मौलाना यद्यपि ‘अवध अखबार’’ में नौकर थे और लेख लिखा करते थे, फिर भी आपको मित्र मंडली में बैठने और गपशप का समय मिल जाता था। उनके एक दोस्त मौलवी अब्दुलबासित कुरसी के रहनेवाले, बड़े बात के धनी, आत्मसम्मानी वीर और लकड़ी की कला में उस्ताद थे। उनके नाम से ‘मशहर’ नामक मासिक पत्र निकाला, जिसका दफ़्तर चौक बजा़ज़ा में कायम किया। वहीं मौलवी साहब की भी बैठक जमने लगी। मौलवी हिदायत रसूल उनके मुहल्ले के रहने वाले और दोस्त थे। अक्सर वह भी साथ रहते थे। लाला रौशनलाल खत्री थे, जो मुसलमान हो गए थे, वह भी उसी गुड्डे के यार थे, मौलवी मासूम अली भी उसी मंडली के थे, पर अपनी सभ्यता और मौलवीपन के अभिमान के कारण गोष्ठी में निस्संकोच सम्मिलित न होते थे! ‘‘मशहर’’ की अच्छी ख्याति हुई; पर मौलाना के मनमौजीपन के कारण वह भी बन्द हो गया।

ब्याह के दो बरस बाद मौलाना को चिन्ता हुई कि जीविका का कोई स्थायी उपाय निकालें, अतः ‘‘अवध अखबार’’ से अलग होकर ‘दिल गुदाज़’ नाम से अपना मासिक पत्र निकाला। उसका आधा भाग काल्पनिक लेख होते थे, दूसरा उपन्यास। आपका पहला उपन्यास ‘दिलचस्प’ है। उस ज़माने में उर्दू में एक उपन्यास लेखक मौलवी साहब थे, दूसरे पंडित रतननाथ ‘सरशार’ कश्मीरी। ‘सरशार’ ने मस्ताना रंग अख्तियार किया। उनका मतलब यह था कि मेरा उपन्यास आम लोगों में दिलचस्पी से देखा जाए। इसलिए उन्होंने दोस्ताने अमीर हमज़ा का अनुसरण करके नायक ‘आज़ाद’ को वीर, मनमौज़ी, स्वच्छन्द आशिकमिज़ाज, चालाक ठहराया और बदीउज्जमाँ अफ़ीमची को बख्तक का रूप दिया और उस पर निर्लज्जता का अन्त कर दिया। यह रंग ऐसा जमा कि उस समय के समाज ने हाथों-हाथ लिया।

मौलाना ने देखा कि इस रंग के सामने कोई नया रंग जमाना कठिन है। अतः उन्होंने रिन्दाना या मस्ताना रंग ‘सरशार’ के लिए छोड़ दिया और अपने लिए एक नया रास्ता निकाला। इसलाम और अकब की ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर मुसलमानों की सभ्यता, संस्कृति, साहस, धर्मनिष्ठता, उदारता, साहित्यसेवा, वज़ेदारी आदि को अँगरेज़ी के ढंग पर लिखना आरम्भ किया।

‘दिलचस्प’ को आकर्षक रंग रूप दिया। मलिकुल अज़ीज उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि आम और खास, रिन्द और मौलवी सबने उसको पढ़ा और गहरी दिलचस्पी से देखा। ‘मंसूर मोहना’ को लोगों ने आँखों पर जगह दी। दुर्गेशनंदनी, हसन अजीलना बहुत लोकप्रिय हुए। हिन्दुस्तान का कोई शिक्षित मुसलमान ऐसा न था, जिसने मौलाना के उपन्यास न पढ़े हों। यहाँ तक कि कुछ ऐसे आलिम भी, जिन्हें नाविल के नाम से चिढ़ थी, मौलाना की रचनाओं का पढ़ना पुण्यजनक कार्य समझते थे। इसके अतिरिक्त उनकी भाषा और भाव में इतनी सभ्यता और गंभीरता थी कि सारे हिन्दू मुसलमान समाज में उनकी कौशल शैली लोकप्रिय हुई। सब सुसंस्कृत लोगों ने उनकी पुस्तकों को अपने पुस्तकालयों में स्थान दिया और उनके अवतरण पाठ्य पुस्तकों में दिये जाने लगे।

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