नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
तौआ– बेटा, कहीं तेरी नीयत तो नहीं बदल गई। खुदा की क़सम, मैं तुझे कभी दूध न बख्शूंगी।
बलाल– अम्मा, खुदा न करे, मेरी नीयत में फर्क आए। मैं तो सिर्फ बात कह रहा था। आज सारा शहर जियाद को दुआएं दे रहा है।
[तौआ प्याले में खाना लेकर मुसलिम को दे आती है।]
बलाल– हजरत हुसैन तशरीफ न लाएं, तो अच्छा हो। मुझे खौफ़ है कि लोग उनके साथ दग़ा करेंगे।
तौआ– ऐसी बातें मुंह से न निकाल। हाथ-मुंह धो ले। क्या तुझे भूख नहीं लगी, या जियाद ने दावत कर दी?
बलाल– खुदा मुझे उसकी दावत से बचाए। खाना ला।
[तौआ उसके सामने खाना रख देती है, और फिर प्याले में कुछ रखकर मुसलिम को दे आती है।]
बलाल– यह पिछवाड़े की तरफ बार-बार क्यों जा रही हो अम्मा?
तौआ– कुछ नहीं बेटा! यों ही एक जरूरत से चली गई थी।
बलाल– हज़रत मुसलिम पर न जाने क्या गुजरी।
[खाना खाकर चारपाई पर लेटता है, तौआ बिस्तर लेकर मुसलिम की चारपाई पर बिछा आती है।]
बलाल– अम्मा, फिर तुम उधर गई, और कुछ लेकर गई। आखिर माज़रा क्या है? कोई मेहमान तो नहीं आया है?
तौआ– बेटा मेहमान आता, तो क्या उनके लिए यहां जगह न थी?
बलाल– मगर कोई-न-कोई धात है। क्या मुझसे भी छिपाने की ज़रूरत है?
तौआ– तू सो जा, तुझसे क्या।
बलाल– जब तक बतला न दोगी, तब तक मैं न सोऊंगा।
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