नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
तौआ– किसी से कहेगा तो नहीं?
बलाल– तुम्हें मुझ पर भी एतबार नहीं?
तौआ– कसम खा।
बलाल– खुदा की कसम है, जो किसी से कहूं।
तौआ– (बलाल के कान में) हज़रत मुसलिम हैं।
बलाल– अम्मा, जियाद को खबर मिल गई, तो हम तबाह हो जायेंगे।
तौआ– खबर कैसे हो जायेगी। मैं तो कहूंगी नहीं। हां, तेरे दिल की नहीं जानती। करती क्या, एक तो मुसाफिर, दूसरे हुसैन के भाई। घर में जगह न होती, तो दिल में बैठा लेती।
बलाल– (दिल में!) अम्माँ ने मुझे यह राज बता दिया, बड़ी गलती की मैंने जिद करके पूछा, मुझसे गलती हुई। दिल पर क्योंकर काबू रख सकता हूं। एक वार से बादशाहत मिलती हो, तो ऐसा कौन हाथ है, जो न उठ जायेगा। एक बात से दौलत मिलती हो, जिंदगी के सारे हौसले पूरे होते हों, तो वह कौन जुबान है, जो चुप रह जायेगी। ऐ दिल, गुमराह न हो, तूने सख्त कसमें खाई हैं। लानत का तौक गले में न डाल। लेकिन होगा तो वही, जो मुकद्दर में हैं। अगर मुसलिम की तकदीर में बचना लिखा है, तो बचेंगे, चाहे सारी दुनिया दुश्मन हो जाये। मरना लिखा है, तो मरेंगे, चाहे सारी दुनिया उन्हें बचाए।
[उठकर तौआ की चारपाई की तरफ देखता है, और चुपके-से दरवाजा खोलकर चला जाता है।]
तौआ– (चौंककर उठ बैठती है।) आह! जालिम मां से भी दग़ा की। तुझे यह भी शर्म नहीं आई कि हुसैन का भाई मेरे मकान में गिरफ्तार हो, आकबत के दिन खुदा को कौने-सा मुंह दिखाएंगा। एक कसीर था कि अपनी और अपने बेटे की जान अपने मेहमान पर निसार कर दी, और एक बदनसीब मैं हूं कि मेरा बेटा उसी मेहमान को दुश्मनों के हवाले करने जा रहा है।
[बाहर शोर सुनाई देता है। मुसलिम तौआ के कमरे में आते हैं।]
मुस०– तौआ, यह शोर कैसा है?
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