नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
तौआ– या हजरत! क्या बताऊं, मेरा बेटा मुझसे दग़ा कर गया। वह बुरी सायत थी कि मैंने अपने घर में आपको पनाह दी। काश अगर मैंने उस वक्त बेमुरौवती की होती, तो आप इस खतरे में न पड़ते। अगर कभी किसी मां को बेटा जनने पर अफ़सोस हुआ है, तो वह बदनसीब मां मैं हूं। अगर जानती कि यह यों दग़ा करेगा, तो जच्चेखाने में ही उसका गला घोंट देती।
मुस०– नेक बीबी, शर्मिंदा न हो। तेरे बेटे की खता नहीं, सब कुछ वही हो रहा है, जो तकदीर में था, और जिसकी मुझे खबर थी। लेकिन दुनिया में रहकर इंसाफ, इज्जत और ईमान के लिए प्राण देना हर एक बच्चे मुसलमान का फर्ज है। खुदा नबियों के हाथों हिदायत के बीज बोता है, और शहीदों के खून से उसे सींचता है। शहादत वह आला-से-आला रुतबा है जो कि खुदा इंसान को दे सकता है। मुझे अफ़सोस सिर्फ यह है कि जो बात एक दिन पहले होनी चाहिए थी, वह आज खुदा के बंदों के खून बहाने के बाद हो रही है।
[जियाद के आदमी बाहर से तौआ के घर में आग लगा देते हैं, और मुसलिम बाहर निकलकर दुश्मनों पर टूट पड़ते हैं।]
एक सिपाही– तलवार क्या है, बिजली है। खुदा बचाए।
[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर जाता है।]
दूसरा सिपाही– अब इधर चला, जैसे कोई मस्त शेर डकारता हुआ चला आता हो। बंदा तो घर का राह लेता है, कौन जान दे।
(भागता है।)
तीसरा सिपाही– अर…र…र…या हजरत, मैं गरीब मुसाफिर हूं, देखने आया था कि यहां क्या हो रहा है।
[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर पड़ता है]
चौथा सिपाही– जहन्नुम में जाये ऐसी नौकरी। आदमी आदमी से लड़ता है कि देव से। या हज़रत, मैं नहीं हूं, मैं तो हजूर के हाथों पर बैयत कतरने आया था।
[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर पड़ता है।]
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