नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
मुस०– हवा पर आए हो या तख्तए-सुलेमान पर? कसम है पाक रसूल की कि मैं उस घोड़े के लिये पांच हज़ार दीनार पेश करता हूं।
तारिक– हुजूर, घोड़ी नहीं, सांड़नी है, जो सफ़र में खाना और थकना नहीं जानती।
(हुसैन के हाथ में खत देता है)
हुसैन– (खत पढ़कर) आह, कितना दर्दभरा खत है। जालिमों ने दिल निकालकर रख दिया है। यह कितना गजब का जुमला है कि अगर आप न आएंगे, तो हम आक़वत में आपसे इंसाफ़ का दावा करेंगे। आह! उन्होंने नाना का वास्ता दिया है। मैं नाना के नाम पर अपनी जान को यों फ़िदा कर सकता हूं, जैसे कोई हरीस अपना ईमान फ़िदा कर देता है। इतना जुल्म! इतनी सख्ती! दिन-दहाड़े लूट! दिन-दहाड़े औरतों की बेआबरूई! जरा-जरा-सी बातों पर लोगों का कत्ल किया जाना! अब्बास, अब मुझे सब्र की ताब नहीं है। मैं अपनी बैयत के लिये हर्गिज न जाता, पर मुसीबतजदों की हिमायत के लिये न जाऊं, यह मेरी ग़ैरत गंवारा नहीं करती।
मुस०– या बिरादर, आप इसका कुछ ग़म न करें, मैं इसी कासिद के साथ जाऊंगा और वहां की कैफ़ियत की इत्तिला दूंगा। मेरा खत देखकर आप मुनासिब फ़ैसला कीजिएगा।
हुसैन– तब तक यजीद उन गरीबों पर खुदा जाने क्या-क्या सितम ढाए। उसका अजाब मेरी गर्दन पर होगा। सोचो, जब कयामत के दिन वे लोग फ़रियादी होंगे, तो मैं नाना को क्या मुंह दिखाऊंगा। जब वह मुझसे पूछेंगे कि तुझे जान इतनी प्यारी थी कि तूने मेरे बंदों पर जुल्म होते देख, और खामोश बैठा रहा, उस वक्त मैं उन्हें क्या जवाब दूंगा। मुसलिम, मेरा जी चाहता है कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूं।
मुस०– मुझे तो इसका यक़ीन है कि सुलेमान– जैसा आदमी कभी दग़ा नहीं कर सकता।
जुबेर– हर्गिज़ नहीं।
मुस०– पर मैं यही मुनासिब समझता हूं कि पहले वहां जाकर अपनी इत्मीनान कर लूं।
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