नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
मुस०– बच्चों को ग़ैव का इल्म होता है। इसका फैसला अली असगर पर छोड़ दिया जाये। क्यों बेटा, मैं भी मुसलिम के साथ जाऊं, या उनके खत का इंतजार करूं।
अली अस०– नहीं अब्बाजान, अभी मुसलिम चाचा ही को जाने दाजिए। आप चलेंगे, तो कई दिन तैयारियों में लग जायेंगे। ऐसा न हो, इतने दिनों में वे बेचारे निराश हो जायें।
अब्बास– बेटा, तेरी उम्र दराज हो। तूने खूब फैसला किया। खुदा तुझे बुरी नजर से बचाए।
हुसैन– अच्छी बात है, मुसलिम, तुम सबेरे रवाना हो जाओ। अपने साथ गुलाम लेते जाओ। रास्ते में शायद इनकी ज़रूरत पड़े। मैं कूफ़ावालों के नाम यह खत लिख देता हूं, उन्हें दिखा देना। इंशा अल्लाह, हम तुमसे जल्दी ही मिलेंगे। वहां बड़े एहतियात से काम लेना, अपने को छिपाए रखना, और किसी ऐसे आदमी के घर उतरना, जो सबसे एतबार के लायक हो। मेरे पास एक खत रोजाना भेजना।
मुस०– खुदा से दुआ कीजिए कि वह मेरी हिदायत करे। मैं बड़ी भारी जिम्मेदारी लेकर जा रहा हूं। सुबह की नमाज पढ़कर मैं रवाना हो जाऊंगा। तब तक तारिक की सांड़नी भी आराम कर लेगी।
[हुसैन खत लिखकर मुसलिम को देते हैं। मुसलिम दरवाजे की तरफ़ चलते हैं।]
हुसैन– (मुसलिम के साथ दरवाजे तक आकर) रात तो अंधेरी है।
मुस०– उम्मीद की रोशनी तो दिल में है।
हुसैन– (मुसलिम से बगलगीर होकर) अच्छा भैया, जाओ, मेरा दिल तुम्हारे साथ रहेगा। जो कुछ होने वाला है, जानता हूं। इसकी खबर मिल चुकी है। तकदीर से कोई चारा नहीं, नहीं जानता, यह तकदीर क्या है! अगर खुदा का हुक्म है, तो छुपकर, सूरत बदलकर, दग़ाबाजों की तरह क्यों आती है। खुदा क्या साफ़ और खुले एक अल्फाज़ में अपना हुक्म नहीं भेजता। अपने बेकस बच्चों का शिकार टट्टी की आड़ से क्यों करता है। जाओ, कहता हूं, पर जी चाहता है, न जाने दूं। काश, तुम कह देते कि मैं न जाऊंगा। मगर तक़दीर ने तुम्हारी जबान बन्द कर रखी है। अच्छा, रूखसत। उम्मीद है कि अल्लाह हम दोनों को एक साथ शहादत का दर्जा देगा।
[मुसलिम बाहर चला जाता है। हुसैन आंखें पोंछते हुए हरम में दाखिल होते हैं।]
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