नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 36 पाठक हैं |
अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
सातवाँ दृश्य
[कूफ़ा के चौक में कई दुकानदार बातें कर रहे हैं।]
पहला– सुना, आज हज़रत हुसैन तशरीफ लेनेवाले हैं।
दूसरा– हां, कल मुख्तार के मकान पर बड़ा जमघट था। मक्का से कोई साहब उनके आने की खबर लाए हैं।
तीसरा– खुदा करे, जल्द आवें। किसी तरह इन जालिमों से पीछा छूटे। मैंने बैयत तो यजीद की ले ली है, लेकिन हज़रत आएंगे, तो फौरन फिर जाऊंगा।
चौथा– लोग कहते थे, बड़ी धूमधाम से आ रहे है। पैदल और सवार फौजें हैं। खेमे वगैरह ऊँटों पर लदे हुए हैं।
पहला– दुकान बढ़ाओ, हम लोग भी चलें। तकदीर में जो कुछ बिकना था, बिक चुका। आकबत की भी तो कुछ फिक्र करनी चाहिए (चौंककर) अरे बाजे की आवाजें कहां से आ रही हैं?
दूसरा– आ गए शायद।
[सब दौड़ते हैं। जियाद का जलूस सामने से आता है। जियाद मिंबर पर खड़ा हो जाता है।]
कई आवाजें– मुबारक हो, मुबारक हो, या हज़रत हुसैन!
जियाद– दोस्तों, मैं हुसैन नहीं हूं। हुसैन का अदना गुलाम रसूल पाक के कदमों पर निसार होने वाला नाचीज खादिम बिन जियाद हूं।
एक आवाज– जियाद है, मलऊन जियाद है।
दूसरा– गिरा दो मिंबर पर से; उतार दो मरदूद को।
तीसरा– लगा दो तीर का निशाना। ज़ालिम की जबान बन्द हो जाय।
चौथा– खामोश, खामोश। सुनो, क्या कहता है?
जियाद– अगर आप समझते हैं कि मैं जालिम हूं, तो बेशक मुझे तीर का निशाना बनाइए, पत्थरों से मारिए, क़त्ल कीजिए, हाजिर हूं। जालिम गर्दन जदनी है और जो जुल्म बर्दाश्त करे, वह बेग़ैरत है। मुझे ग़रूर है कि आप गै़रत है, जोश है।
|