नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
यह कहकर उन्होंने इसलिये चिराग़ बुझा दिया कि जाने वालों को संकोचवश वहां न रहना पड़े। कितना महान्, पवित्र और निस्वार्थ आत्मसमर्पण है।
किंतु इस वाक्य का समाप्त होना था कि सब लोग चिल्ला उठे– ‘‘हम ऐसा नहीं कर सकते। खुदा वह दिन न दिखावे कि हम आपके बाद जीते रहें। हम दूसरों को क्या मुँह दिखायेंगे? उनसे क्या यह कहेंगे कि हम अपने स्वामी, अपने बंधु तथा इष्ट मित्र को शत्रुओं के बीच में छोड़ आए, उनके साथ एक भाला भी न चलाया, हम अपने को, अपने धन को और अपने कुल को आपके चरणों पर न्योछावर कर देंगे।’’
इस तरह ९ वीं तारीख, मोहर्रम की रात, आधी कटी। शेष रात्रि लोगों ने ईश्वर-प्रार्थना में काटी। हुसैन ने एक रात की मोहलत इसलिये नहीं ली थी कि समर की रही-सही तैयारी पूरी कर ले। प्रातःकाल तब सब लोग सिजदे करते और अपनी मुक्ति के लिये दुआएं मांगते रहे।
प्रभात हुआ– वह प्रभात, जिनकी संसार के इतिहास में उपमा नहीं है? किसकी आँखों ने यह अलौकिक दृश्य देखा होगा कि ७२ आदमी बाइस हजार योद्धाओं के सम्मुख खड़े हुसैन के पीछे सुबह की नमाज इसलिये पढ़ रहे हैं कि अपने इमाम के पीछे नमाज पढ़ने का शायद यह अंतिम सौभाग्य है। वे कैसे रणधीर पुरुष हैं, जो जानते हैं कि एक क्षण में हम सब-के-सब इस आंधी में उड़ जायेंगे लेकिन फिर भी पर्वत की भांति अचल खड़े हैं, मानों संसार में कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो उन्हें भयभीत कर सके। किसी के मुख पर चिंता नहीं, कोई निराश और हताश नहीं है। युद्ध के उन्माद ने, अपने सच्चे स्वामी के प्रति अटल विश्वास ने, उनके मुख को तेजस्वी बना दिया है। किसी के हृदय में कोई अभिलाषा नहीं है। अगर कोई अभिलाषा है, तो यही कि कैसे अपने स्वामी की रक्षा करें। इसे सेना कौन कहेगा, जिसके दमन को बाइस हजार योद्धा एकत्र किए गए थे। इन बहत्तर प्राणियों में एक भी ऐसा न था, जो सर्वथा लड़ाई के योग्य हो। सब-के-सब भूख-प्यास से तड़प रहे थे। कितनों के शरीर पर तो मांस का नाम तक नहीं था, और उन्हें बिना ठोकर खाए दो पग चलना भी कठिन था। इस प्राण-पीड़ा के समय ये लोग उस सेना से लड़ने को तैयार थे, जिसमें अरब देश के वे चुने हुए जवान थे, जिन पर अरब को गर्व हो सकता था।
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