नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
ग्यारहवाँ दृश्य
[१० बजे रात का समय। जियाद के महल के सामने सड़क पर सुलेमान, मुखतार और हानी चले आ रहे हैं।]
सुले०– जियाद के बर्ताव में अब कितना फर्क नज़र आता है।
मुख०– हां, वरना हमें मशविरा देने के लिये क्यों बुलाता।
हानी– मुझे तो खौफ़ है कि उसे मुसलिम की बैयत लेने की खबर मिल गई है। कहीं उसकी नीयत खराब न हो।
मुख०– शक और ऐतबार साथ-साथ नहीं होता। वरना वह आज आपके घर न जाता।
हानी– उस वक्त भी शायद भेद लेने ही के इरादे से गया हो। मुझे गलती हुई कि अपने कबीले के कुछ आदमियों को साथ न लाया, तलवार भी नहीं ली।
सुले०– यह आपका वहम है।
[जियाद के मकान में वे सब दाखिल होते हैं। वहां कीस, शिमर, हज्जात आदि बैठे हुए हैं।]
जियाद– अस्सामअलेक। आइए, आप लोगों से एक खास मुआमले में सलाह लेनी है। क्यों शेख हानी, आपके साथ खलीफ़ा यजीद ने जो रियायतें की, क्या उनका यह बदला होना चाहिए था कि आप मुसलिम को अपने घर में ठहराएं, और लोगों को हुसैन की बैयत करने पर आमादा करें? हम आपका रुतबा और इज्जत बढ़ाते हैं, और आप हमारी जड़ खोदने की फिक्र में हैं?
हानी– या अमीर, खुदा जानता है, मैंने मुसलिम को खुद नहीं बुलाया, वह रात को मेरे घर आए, और पनाह चाही। यह इंसानियत के खिलाफ था कि मैं उन्हें घर से निकाल देता। आप खुद सोच सकते हैं कि इसमें मेरी क्या खता थी।
जियाद– तुम्हें मालूम था कि हुसैन खलीफ़ा यजीद के दुश्मन हैं?
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