उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
विवाह हुए दो साल हो चुके थे; पर दोनों में कोई सामंजस्य न था। दोनों अपने-अपने मार्ग पर चले जाते थे। दोनों के विचार अलग, व्यवहार अलग, संसार अलग। जैसे दो भिन्न जलवायु के जन्तु एक पिंजरे में बन्द कर दिये गये हों। हाँ, तभी अमरकान्त के जीवन में संयम और प्रयास की लगन पैदा हो गयी थी। उसकी प्रकृति में जो ढीलापन, निर्जीवता और संकोच था वह कोमलता के रूप में बदलता जाता था। विद्याभ्यास में उसे अब रुचि हो गयी थी। हालाँकि लालाजी अब उसे घर के धन्धे में लगाना चाहते थे–वह तार-वार पढ़ लेता था और इससे अधिक योग्यता की उनकी समझ में ज़रूरत न थी–पर अमरकान्त उस पथिक की भाँति, जिसने दिन विश्राम में काट दिया हो, अब अपने स्थान पर पहुँचने के लिए दूने वेग से क़दम बढ़ाये चला जाता था।
३
स्कूल से लौटकर अमरकान्त नियमानुसार अपनी छोटी कोठरी में जाकर चरखे पर बैठ गया। उस विशाल भवन में, जहाँ बारात ठहर सकती थी, उसने अपने लिए यही छोटी-सी कोठरी पसन्द की थी। इधर कई महीने से उसने दो घण्टे रोज सूत कातने की प्रतिज्ञा कर ली थी और पिता के विरोध करने पर भी उसे निभाये जाता था।
मकान था तो बहुत बड़ा; मगर निवासियों की रक्षा के लिये उतना उपयुक्त न था, जितना धन की रक्षा के लिए। नीचे के तल्ले में कई बड़े-बड़े कमरे थे, जो गोदाम के लिए बहुत अनुकूल थे। हवा और प्रकाश का कहीं रास्ता नहीं। जिस रास्ते से हवा और प्रकाश आ सकता था, उसी रास्ते से चोर भी तो आ सकता है। चोर की शंका उसकी एक-एक ईंट से टपकती थी। ऊपर के दोनों तल्ले हवादार और खुले हुए थे। भोजन नीचे बनता था। सोना-बैठना ऊपर होता था। सामने सड़क पर दो कमरे थे–एक में लालाजी बैठते थे, दूसरे में मुनीम। कमरों के आगे एक सायबान था, जिसमें गायें बँधती थीं। लालाजी पक्के गोभक्त थे।
अमरकान्त सूत कातने में मग्न था कि उसकी छोटी बहन नैना आकर बोली–क्या हुआ भैया, फ़ीस जमा हुई या नहीं? मेरे पास बीस रुपये हैं, यह ले लो। मैं कल और किसी से माँग लाऊँगी।
अमर ने चरखा चलाते हुए कहा–‘आज ही तो फ़ीस जमा करने की तारीख़ थी। नाम कट गया। अब रुपये लेकर क्या करूँगा।’
नैना रूप-रंग में अपने भाई से इतनी मिलती थी कि अमरकान्त उसकी साड़ी पहन लेता, तो यह बतलाना मुश्किल हो जाता कि कौन यह है, कौन वह! हाँ, इतना अन्तर अवश्य था कि भाई की दुर्बलता यहाँ सुकुमारता बनकर आकर्षक हो गयी थी।
अमर ने तो दिल्लगी की थी; पर नैना के चेहरे का रंग उड़ गया। बोली–‘तुमने कहा नहीं, नाम न काटो, मैं दो-एक दिन में दे दूँगा?’
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