उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमर ने उसकी घबराहट का आनंद उठाते हुए कहा– ‘कहने को तो मैंने सब कुछ कहा; लेकिन सुनता कौन था?’
नैना ने रोष भाव से कहा–‘मैं तो तुम्हें अपने कड़े दे रही थी, क्यों नहीं लिए?’
अमर ने हँसकर पूछा–‘और जो दादा पूछते, तो क्या होता?’
‘दादा से बतलाती ही क्यों?’
अमर ने मुँह लम्बा करके कहा–‘चोरी से कोई काम नहीं करना चाहता नैना! अब खुश हो जाओ, मैंने फ़ीस जमा कर दी।’
नैना को विश्वास न आया बोली–‘फ़ीस नहीं, वह जमा कर दी। तुम्हारे पास रुपये कहाँ थे?’
‘नहीं नैना, सच कहता हूँ, जमा कर दी।’
‘रुपये कहाँ थे?’
‘एक दोस्त से ले लिए।’
‘तुमने माँगे कैसे?’
‘उसने आप-ही-आप दे दिए, मुझे माँगने न पड़े।’
‘कोई बड़ा सज्जन आदमी होगा।’
हाँ, है तो सज्जन, नैना। जब फ़ीस जमा होने लगी तो मैं मारे शर्म के बाहर चला गया। न जाने क्यों उस वक़्त मुझे रोना आ गया। सोचता था, मैं ऐसा गया–बीता हूँ कि मेरे पास चालीस रुपये नहीं। वह मित्र ज़रा देर में मुझे बुलाने आया। मेरी आँखें लाल थीं। समझ गया। तुरन्त जाकर फ़ीस जमा कर दी। तुमने कहाँ पाये ये बीस रुपये?’
‘यह न बताऊँगी।’
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