उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
प्रयोगशाला में कदम रखते ही मैं एक दूसरी ही दुनिया में पहुँच गया। जेनेवा नगर आँखों के सामने था और एक भवन में राष्ट्रों के मंत्री बैठे हुए किसी राजनीतिक विषय पर बहस कर रहे थे। उनकी आँखों के इशारे, ओठों का हिलना और हाथों का उठना साफ़ दिखाई देता था। उनके मुख से निकला हुआ एक-एक शब्द साफ़-साफ़ कानों में आता था। एक क्षण के लिए मैं धोखे में आ गया कि जेनेवा ही में बैठा हूँ। ज़रा और आगे बढ़ा तो संगीत की ध्वनि कानों में आयी। मैंने यूरोप में यह आवाज सुनी थी। पहचान गया, पड्रोस्की की आवाज थी। मेरे आश्चर्य की सीमा न थी। जिन आविष्कारों का बड़े-बड़े विद्वानों को अभ्यास मात्र था, वे सब यहाँ अपने समुन्नत, पूर्ण रूप से दिखाई दे रहे थे। इसे निर्जन स्थान में, आबादी से कोसों दूर, इतनी ऊँचाई पर कैसे इन प्रयोगों में सफलता हुई, ईश्वर ही जान सकते है। महात्मा लोग तो योग की क्रियाओं ही में कुशल होते हैं। अध्यात्म उनका क्षेत्र है। विज्ञान पर उन्होंने कैसे आधिपत्य जमाया।
महात्माजी मेरी ओर देखकर मुस्कुराएँ और बोले– विज्ञान अन्तःकरण को भी गुप्त नहीं छोड़ता। तुम्हं इन बातों से आश्चर्य होता है। पर यथार्थ यह है कि विज्ञान ने योग को बहुत सरल कर दिया है। वह बहिर्जगत् से अब धीरे-धीरे अन्तर्जगत् में प्रवेश कर रहा है। मनोयोग की जटिल क्रियाओं द्वारा जो सिद्धि वर्षों में प्राप्त होती थी, वह अब क्षणों में हो जाती है। कदाचित् वह समय दूर नहीं कि हम विज्ञान द्वार मोक्ष भी प्राप्त कर सकेंगे।
मैंने पूछा–क्या पूर्व समय का ज्ञान भी किसी प्रयोग द्वारा हो सकता है?
महात्मा–हो सकता है है; लेकिन उससे किसी उपकार की आशा नहीं। विज्ञान अगर प्राणियों का उपकार न करे, तो उसका मिट जाना ही अच्छा। केवल जिज्ञासा को शान्त करने, विलास में योग देने या यथार्थ की सहायता करने के लिए प्रयोग करना उसका दुरुप्रयोग करना है। मैं चाहूँ तो अभी एक क्षण में यूरोप के बड़े-से-बड़े नगर को नष्ट-भ्रष्ट कर दूँ, लेकिन विज्ञान प्राणरक्षा के लिए है, वध करने के लिए नहीं।
मुझे निराशा तो हुई, पर आग्रह न कर सका। शाम तक प्रयोगशाला के यन्त्रों को देखता रहा। किन्तु उनमें अब मन न लगता था। यही धुन सवार थी कि क्योंकर यह दुस्तर कार्य सिद्ध करूँ। आखिर उन्हें किसी तरह पसीजते न देखकर मैंने उसी हिकमत से काम लिया, जो निरुपायों का आधार है। बोला–भगवन्, आपने वह सब कर दिखाया; जिसका संसार के विज्ञानवेत्ता अभी केवल स्वप्न देख रहे हैं।
महात्माजी पर इन शब्दों का वही असर पड़ा, जो मैं चाहता था। यद्यपि मैंने यथार्थ ही कहा था, लेकिन कभी-कभी यथार्थ भी खुशामद का काम कर जाता है। प्रसन्न होकर बोले–मैं गर्व तो नहीं करता; पर ऐसी प्रयोगशाला संसार में दूसरी नहीं है।
मैं–यूरोपवालों को ख़बर मिल जाए तो आपको आराम से बैठना मुश्किल हो जाये।
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