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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


महात्मा–मैंने कितनी ही नई-नई बातें खोज निकालीं, पर उनका गौरव आज दूसरों को प्राप्त है। लेकिन इसकी क्या चिंता! मैं विज्ञान का उपासक हूँ, अपनी ख्याति और गौरव का नहीं।

मैं–आपने इस देश का मुख उज्जवल कर दिया।

महात्मा–मेरा यान आकाश में जितनी ऊँचाई तक पहुँच सकता है, उसकी यूरोपवाले कल्पना भी नहीं कर सकते। मुझे विश्वास है कि शीघ्र ही मेरी चन्द्रलोक की यात्रा सफल होगी। यूरोप के वैज्ञानिकों की तैयारियाँ देख-देखकर मुझे हँसी आती है। जब तक हमको वहाँ की प्राकृतिक स्थिति का ज्ञान न हो, हमारी यात्रा सफल नहीं हो सकती। सबसे पहले विचारधाराओं को वहाँ ले जाना होगा। विद्वान् लोग भी कभी-कभी बालकों की-सी कल्पनाएँ करने लगते हैं।

मैं–वह दिन हमारे लिए सौभाग्य और गर्व का होगा।

महात्मा–प्राचीन काल में ऋषिगण योग-बल से त्रिकाल-दृष्टि प्राप्त किया करते थे। पर उसमें बहुध भ्रम हो जाता था। उसकी सहायता का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न होता था। मैंने वैज्ञानिक परीक्षाओं से उस कार्य को सिद्ध किया है। प्रण तो मैंने यही किया था कि किसी को यह रहस्य न बताऊँगा, लेकिन तुम्हारी तपस्या देखकर दया आ रही है! मेरे साथ आओ।

मैं महात्माजी के पीछे-पीछे एक ऐसी गुफा में पहुँचा, जहाँ केवल एक छोटी-सी चौकी रखी हुई थी। महात्माजी ने गम्भीर मुख से कहा–तुम्हें यह बात गुप्त रखनी होगी।

मैंने कहा–जैसी आज्ञा।

महात्मा–तुम इसका वचन देते हो?

मैं–आप इसकी किंचित्मात्र भी चिन्ता न करें।

महात्मा–अगर किसी यश और धन के इच्छुक को यह खबर मिल गई, तो वह संसार में एक महान् क्रांति उपस्थित कर देगा और कदाचित् मुझे प्राणों से हाथ धोना पड़े। मैं मर जाऊँगा, किन्तु इस गुप्त ज्ञान का प्रचार न करूँगा। तुम इस चौकी पर लेट जाओ और आँखें बन्द कर लो।

चौकी पर लेटते ही मेरी आँखें झपक गईं और पूर्व जन्म का दृश्य आँखों के सामने आ गए। हाँ प्रिये, मेरी अतीत जीवित हो गया। यही भवन था; यही माता-पिता थे; जिनकी तस्वीर दीवानखाने में लगी हुई है। मैं लड़कों के साथ बाग़ में गेंद खेल रहा था। फिर दूसरा दृश्य सामने आया। मैं गुरु की सेवा में बैठा हुआ पढ़ रहा था। यही वह गुरुजी थे, जिनकी तस्वीर तुम्हारे कमरे में है, एक तिल का भी अन्तर नहीं है। इसके बाद युवावस्था का दृश्य आया। मैं तुम्हारे साथ एक नौका पर बैठा हुआ नदी में जल-क्रीड़ा कर रहा था। यह है वह दृश्य, जब हवा वेग से चलने लगी थी और तुम डरकर मेरे हृदय से चिपक गई थीं।

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