उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
विशालसिंह ने पुलकित होकर कहा–बस, तुम्हारी इन्हीं बातों पर मेरी जान जाती है। कुलवन्ती स्त्रियों का, यही धर्म है। आज तुम्हारी धानी साड़ी गजब ढा रही है। कवियों ने सच कहा है, यौवन प्रौढ़ होकर और भी अजेय हो जाता है। चन्द्रमा का पूरा प्रकाश भी तो पूर्णिमा ही को होता है।
वसुमती–खुशामद करना कोई तुमसे सीखे।
विशालसिंह–जो चीज़ कम हो, वह और मँगवा लेना।
विजय के गर्व से फूली हुई वसुमती आधी रात तक बैठी भाँति-भाँति के पकवान बनाती रही। द्वेष ने बरसों की सोयी हुई कृष्ण-भक्ति को जागृत कर दिया। वह इन कामों ने निपुण थी। श्रम से उसे कुछ-रुचि-सी थी। निठल्ले-न बैठा जाता था। रोहिणी जिस काम को दिन भर मर-मरकर करती, उसे वह दो घंटे में हँसते-हँसते पूर्ण कर देती थी। रामप्रिया ने उसे बहुत व्यस्त देखा, तो वह भी आ गई और दोनों मिलकर काम करने लगीं।
विशालसिंह बाहर गये और कुछ देर तक गाना सुनते रहे, पर वहाँ जी न लगा। फिर भीतर चले आये और रसोई घर के द्वार पर मोढ़ा डालकर बैठ गए। भय था कि कहीं रोहिणी कुछ कह न बैठे और दोनों फिर लड़ मरें।
वसुमती ने कहा–बाहर क्या हो रहा है?
विशालसिंह–गाना शुरू हो गया है। तुम इतनी महीन पूरियाँ कैसे बनाती हो? फट नहीं जाती!
वसुमती–चाहूँ तो इससे भी महीन बेल दूँ, काग़ज मात हो जाये।
विशालसिंह–मगर खिलेंगी न?
वसुमती–खिलाकर दिखा दूँ। डब्बे-सी न फूल जाये तो कहना। अभी महारानी नहीं उठीं क्या? इसमें छिपकर बातें सुनने की बुरी लत है। न जाने क्या चाहती है। बहुत औरतें देखीं, लेकिन इसके ढंग सबसे निराले हैं। मुहब्बत तो इसे छू नहीं गई। अभी तुम तीन दिन बाहर कराहते रहे, पर कसम ले लो, जो उसका मन ज़रा भी मैला हुआ हो। हम लोगों के प्राण तो नखों में समा गए थे, रात-दिन देवी-देवता मनाया करती थीं, वहाँ पान चबाने, आईना देखने और माँग-चोटी करने के सिवा दूसरा कोई काम ही न था। ऐसी औरतों पर कभी विश्वास न करे।
विशालसिंह–सब देखता हूँ और समझता हूँ, निरा गधा नहीं हूँ।
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