उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
विशालसिंह–बहुत उठा चुका, जी भर गया।
वसुमती–बस, एक ब्याह और कर लो, एक ही और, जिससे चौकड़ी पूरी हो जाये।
विशालसिंह–क्यों बैठे-बैठे जलाती हो? विवाह क्या किया था, भोगविलास करने के लिए, या तुमसे कोई बड़ी सुन्दरी होगी।
वसुमती–अच्छा, आओ, सुनते जाओ।
विशालसिंह–जाने दो लोग बाहर बैठे होंगे।
वसुमती–अब यही तो नहीं अच्छा लगता। अभी घंटे-भर वहाँ बैठे चिकनी-चुपड़ी बातें करते रहे तो नहीं देर हुई; मैं एक क्षण के लिए बुलाती हूँ तो भागे जाते हो। इसी दोअक्खी की तो तुम्हें सज़ा मिल रही है।
यह कहकर वसुमती ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया, घसीटती हुई अपने कमरे में ले गयी और चारपाई पर बैठाती हुई बोली–औरतों को सिर चढ़ाने का यही फल है। उसे तो तब चैन आये, जब घर में अकेली वही रहे। जब देखो, तब अपने भाग्य को रोया करती है, किस्मत फूट गई, माँ-बाप ने कुएँ में झोंक दिया, ज़िन्दगी खराब हो गई। यह सब मुझसे नहीं सुना जाता, यही मेरा अपराध है। तुम उसके मन के नहीं हो, सारी जलन इसी बात की है। पूछा, तुझे कोई ज़बरदस्ती निकाल लाया था, या तेरे माँ-बाप की आँखें फूट गई थीं? वहाँ तो यह मनसूबे थे कि बेटी मुँहज़ोर है ही, जाते ही जाते राजा को अपनी मुट्ठी में करके रानी बन बैठेगी। क्या मालूम था कि यहाँ उसका सिर कुचलने कोई और बैठा हुआ है। यही बातें खोलकर कह देती हूँ, तो तिलमिला उठती है और तुम दौड़ते हो मनाने। बस, उसका मिज़ाज़ और आसमान पर चढ़ जाता है। दो-दिन, दस दिन रूठी पड़ी रहने दो, फिर देखो, भीगी बिल्ली हो जाती है या नहीं। यह निरन्तर का नियम है कि लोहे को लोहा ही काटता है। कुमानुष के साथ कुमानुष बनने ही से काम चलता है। गोस्वामी तुलसीदास ने नारियों के विषय में जो कहा है, बिलकुल सच है।
विशालसिंह–यहाँ वह खटबाँस लेकर पड़ी है, अब पकवान कौन बनाए?
वसुमती–तो क्या जहाँ मुर्ग़ा न हो, वहाँ सवेरा ही न होगा? आखिर जब वह नहीं थी, तब भी तो जन्माष्टमी मनाई जाती थी। ऐसा कौन-सा बड़ा काम है? मैं बनाए देती हूँ। भगवान् थोड़े ही बाँटे हुए हैं। या मुझे जन्माष्टमी से कोई बैर है।
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