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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


यह कहते हुए वह कमरे में चले गये।

मेघों का दल उमड़ा चला आता था। मनोरमा खिड़की के सामने खड़ी आकाश की ओर भयातुर नेत्रों से देख रही थी। अभी बाबूजी घर न पहुँचे होंगे। पानी आ गया तो ज़रूर भीग जायेंगे। मुझे चाहिये था कि उन्हें रोक लेती। भैया न आ जाते, तो शायद वह भी खुद ही बैठते। ईश्वर करे, वह घर पहुँच गए हों।

१३

मुद्दत के बाद जगदीशपुर के भाग जागे। राजभवन आबाद हुआ। बरसात में मकानों की मरम्मत न हो सकती थी  इसलिए क्वार तक शहर ही में गुज़र करना पड़ा। कार्तिक लगते ही एक ओर जगदीशपुर के राजभवन की मरम्मत होने लगी, दूसरी ओर गद्दी के उत्सव की तैयारियाँ शुरू हुईं। शहर से सामान लद-लदकर जगदीशपुर जाने लगा। राजा साहब स्वयं एक बार रोज़ जगदीशपुर आते; लेकिन रहते शहर में ही। रानियाँ जगदीशपुर चली गयी थीं और राजा साहब को अब उनसे चिढ़-सी हो गई थी। घण्टे-दो घण्टे के लिए भी वहाँ जाते तो सारा समय गृह-कलह सुनने में कट जाता था और कोई काम देखने की मोहलत न मिलती थी। रानियों में पहले ही से बमचख मची रहती थी। राजा सहब ने जीवन का नया अध्याय शुरू कर दिया था।

राजा सहब ताक़ीद करते थे कि प्रजा पर ज़रा भी सख्ती न होने पाए। दीवान साहब से उन्होंने ज़ोर देकर कह दिया था कि बिना पूरी मज़दूरी दिये किसी से काम न लीजिए, लेकिन यह उनकी शक्ति के बाहर था कि आठों पहर बैठे रहें। उनके पास अगर कोई शिकायत पहुँचती, तो कदाचित् वह राज कर्मचारियों को फाड़ खाते। लेकिन प्रजा सहनशील होती है, जब तक प्याला भर न जाये, वह जुबान नहीं खोलती। फिर गद्दी के उत्सव में थोड़ा-बहुत कष्ट होना स्वाभाविक समझकर और भी कोई न बोलता था। अपना काम तो बारहों मास करते ही हैं, मालिक की भी तो कुछ सेवा होनी चाहिए–यह ख़याल करके सभी लोग उत्सव की तैयारियों में लगे हुए थे। सुन रखा था कि राजा साहब बड़े दायलु, प्रजावत्सल हैं, इससे लोग खुशी से इस अवसर पर योग दे रहे थे। समझते थे, महीने-दो महीने का झंझट है, फिर तो चैन-ही-चैन है। रानी साहब के समय की-सी धाँधली तो इनके समय में न होगी।

तीन महीने तक सारी रियासत के बढ़ाई मिस्त्री, दरजी, चमार, कहार सब दिल तोड़कर काम करते रहे। चक्रधर को रोज़ खबरें मिलती रहती थीं कि प्रजा पर बड़े-बड़े अत्याचार हो रहे हैं, लेकिन वह राजा साहब से शिकायत करके उन्हें असमंजस में न डालना चाहते थे। अकसर खुद जाकर मजदूरों और कारीगरों को समझाते थे। १५ ही मील का तो रास्ता था। रेलगाड़ी आधे घण्टे में पहुँचा देती थी। इस तरह तीन महीने गुज़र गए। राजभवन का कलेवर नया हो गया। सारे कस्बे में रोशनी के फाटक बन गए, तिलकोत्सव का विशाल पण्डाल तैयार हो गया। चारों तरफ़ भवन में, पंडाल में, कस्बे में सफ़ाई और सजावट नज़र आती थी। कर्मचारियों को नई वर्दियाँ बनवा दी गईं। प्रान्त भर के रईसों के नाम निमन्त्रण-पत्र भेज दिए और रसद का सामान ज़मा होने लगा। वसंत ऋतु थी, चारों, तरफ़ वसंती रंग की बहार नज़र आती थी। राजभवन वसंत रंग से पुताया गया। पण्डाल भी वसंती था। मेहमानों के लिए जो कैम्प बनाए थे, वे भी वसंती थे। कर्मचारियों की वर्दियाँ भी वसंती। दो मील घेरे में वसंत-ही-वसंत था। सूर्य के प्रकाश से सारा कंचनमय हो जाता था। ऐसा मालूम होता था, मानो स्वयं ऋतुराज के अभिषेक की तैयारियाँ हो रही हैं।

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